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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०३ आए हुए 'संकल्पात' पदकी अनुवृत्ति यहाँ भी है जैसाकि पहले उसकी व्याख्यामें बतलाया जा चुका है। इसी तरह ऐसे साधारण असत्यकी भी इसमें परिगणना नहीं है जो किसीके ध्यानको विशेषरूपसे आकृष्ट न कर सके अथवा जिससे किसीकी कोई विशेप हानि न होती हो। इसके मिबाय बोलने-बुलवाने में मुखसे बोलना-बुलवाना ही नहीं बल्कि लखनीसे बोलना-बुलवाना अर्थात् लिखना-लिग्वाना भी शामिल है। यहाँ से सत्यको भी असत्यमें परिगणित किया है जो किमीकी विपदाका कारगा हो, यह एक खास बान है और इसने यह सात मचित होता है कि अहिंसाकी मयंत्र प्रधानता है. अहिंसाव्रत इस ऋतका भी यात्मा है और उसकी अनुवृत्ति उत्तरवर्ती व्रतोंमें बराबर चली गई है। . सत्यागुव्रतके अतिचार परिवाद-रहोऽभ्याख्या पैशून्यं कूटलेखकरणं च । न्यासाऽपहारिता च व्यतिक्रमाः पंच सत्यस्य ॥१०॥५६॥ परिवाद-निन्दा-गाली-गलौच, रहोभ्याख्या-गुह्य ( गोपनीय) का प्रकाशन, पैशून्य--पिशुनव्यवहार-चुगली, तथा कूटलेखकरणा---- मायाचारप्रधान लिखावट-द्वारा जालसाजी करना अर्थात् दूसरोंको प्रकारान्तरसे अन्यथा विश्वास कराने के लिए दूसरोंके नामसे नई दस्तावेज़ या लिखावट तैयार करना, किसीके हस्ताक्षर बनाना, पुरानी लिखावटमें मिलावट अथवा काट-छाँट करना या किसी प्राचीन ग्रन्थमेंसे कोई वाक्य इस तरहसे निकाल देना या उसमें बढ़ा देना जिससे वह अपने वर्तमान रूपमें प्राचीन कृति या अमुक व्यक्तिविशेषकी कृति समझी जाय और न्यासापहारिता-धरोहरका प्रकारान्तरसे अपहरण अर्थात् ऐसा वाक्यव्यवहार जिससे प्रकटरूपमें असत्य न बोलते हुए भी दूसरेकी धरोहरका
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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