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________________ ६२ समीचीन धर्मशास्त्र [ अ० ३ देने की जरूरत न रहती । अतीचार अभिसन्धिकृत - व्रतोंकी बाह्य सीमाएँ हैं । अहिंसाऽणुव्रत अतिचार छेदन - बन्धन - पीडनमतिभारारोपणं व्यतीचाराः । आहारवारणाऽपि च स्थूलवधाद्व्युपरते : पंच || ८ ||२४|| 'छेदन करणं नासिकादि शरीरके अवयवोंका परहितविरोधिनी दृष्टिसे छेदना - भेदना -, बन्धन - रस्सी जंजीर तथा दूसरे किसी प्रतिबन्धादिके द्वारा शरीर और वचनपर यथेष्ट गति-निरोधक अनुचित रोकथाम लगाना, पीडन - दण्ड- चाबुक बेंत ग्रादिके अनुचित प्रभिवातद्वारा शरीरको पीड़ा पहुँचाना तथा गाली यादि कटुक वचनोंके द्वारा किसीके मनको दुखाना — अतिभारारोपण - किसी पर उसकी शक्तिसे अथवा न्याय-नीति से अधिक कार्यभार, करभार, दण्डभार तथा बोझा लादना -, और आहार - वारणा -- अपने आश्रित प्राणियों के अन्नपानादिका निरोध करना, उन्हें जानबूझकर शक्ति होते यथा समय और यथापरिमाण भोजन न देना - ये पांच स्थूलवध - विरमरणकेहिमाऽव्रत के प्रतीचार हैं— सीमोल्लंघन अथवा दोष हैं ।' " : व्याख्या - यहाँ जिस समय सीमोल्लंघन अथवा दोपके लिये 'व्यतीचार' शब्दका प्रयोग किया है उसीके लिये ग्रन्थमें आगे क्रमशः व्यतिक्रम, व्यतीपात, विक्षेप, अतिक्रमण, अत्याश, व्यतीत, अत्यय, अतिगम, व्यतिलंघन और अतिचार शब्दोंका प्रयोग किया गया है*, और इसलिए इन सब शब्दों को एकार्थक समझना चाहिए । * देखो, कारिका नं० ५६, ५८, ६२. ६३, ७३, ८१,६६,१०५, ११०. १२६ ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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