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________________ कारिका ५३] अहिंसाऽणुव्रत-लक्षण ६१ अनुवृत्ति अगला 'सत्याणुव्रत' आदिका लक्षण प्रतिपादन करनेवाली कारिकाओं में उसी प्रकार चली गई है जिस प्रकार कि तत्वार्थसूत्र में 'प्रमत्तयोगात्' पद की अनुवृत्ति अगले असत्यादिके लक्षग-प्रतिपादक सूत्रोंमें चली गई है। शुद्ध-स्वच्छा अथवा स्वतन्त्र इच्छा ही संकल्पका भाग है, इसलिय वैसी इच्छाके बिना मजबूर होकर जो अपने प्राण, धन, जन, प्रतिमा तथा शीलादि की रक्षाक लिए विरोधी हिंसा करनी पड़े वह भी इस व्रतकी सीमाम बाहर है । इस तरह आरम्भजा और विराधजा दो प्रकारकी महिला इल संकल्पी त्रसहिमाके न्धान में नहीं पाती । पंचगना और ऋपिवागिज्यादिरूप आरम्भ कार्याम तो किसी व्यक्तिविशेषकं प्रागाघातका कोई संकल्प ही नहीं होता, और विरजा हिंसा में जो संकल्प होता है वह शुद्धबच्छामे न .नके कारण प्रागरहित होता है, इसीम इन दोनोंका त्याग इस व्रतकी कोटि में नहीं आता। इन दोनों प्रकारकी हिमात्रओंकी छूटकं बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता, राज्यव्यवस्था बन नहीं सकती और न गृहस्थ-जीवन व्यती . करते हुम एक नागके लिये ही कोई निरापद का निराकुल रह सकता है । एक मात्र विरोधिहिंसाका मय कितनांको ही दुसराक धनजनादिकी हानि करनस रोके रहता है। यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि हिनस्ति पदके अर्थरूपमें, हिंसाके पूर्व निदिए पर्यायनाम 'प्राणातिपात' को लक्ष्य में रखते हुए, प्राणघातकी जो बात कही गई है वह व्रतकी स्थूलतानुरूप प्रायः जान से मार डालने रूप प्राणघातसे सम्बन्ध रखती है, और यह बात अगली कारिकामें दिए हुए अतिचारोंको देखते हुए और भी स्पष्ट होजाती है । क्योंकि छेदनादिक भी प्राणघातके ही रूप हैं, उनका समावेश यदि इस कारिका-वर्णित प्राणघातमें होता तो उन्हें अलगसे कहने तथा 'अतीचार' नाम
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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