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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ प्रयोग उसके सुनिश्चयादिकका द्योतक होता है । उसी दृष्टिसे ग्रन्थकारमहोदयने यहां 'इद' तथा 'ईदर्श' शब्दोंके साथ 'ही' अर्थके वाचक 'एव' शब्दका प्रयोग किया है, जो उनके दूसरे कथनोंके साथ किसी तरह भी असंगत नहीं है। उन्होंने तो अपने युक्त्यनुशासन ग्रन्थमें 'अनुक्ततुल्यं यदनेवकारं' जैसे वाक्योंके द्वारा यहां तक स्पष्ट घोषित किया है कि जिस पदके साथमें 'एव' (ही) नहीं वह अनुक्ततुल्य है-न कहे हुएके समान है। इस एवकारके प्रयोग-अप्रयोग-विषयक विशेष रहस्यको जाननेके लिये युक्त्यनुशासन । ग्रन्थको देखना चाहिये । __अनाकाँक्षणाङ्ग-लक्षण कर्म-परवशे साऽन्ते दुःखैरन्तरितोदये । पाप-बीजे मुखेऽनास्था श्रद्धाऽनाकांक्षणा स्मृता ॥१२॥ 'जो कर्मकी पराधीनताको लिये हुए है--सातावेदनीयादि कर्मोके उदयाधीन है-, अन्त सहित है-नाशवान है-, जिसका उदय दुःखोंसे अन्तरित है-अनेक प्रकारके शारीरिक तथा मानसिकादि दुःखोंकी बीच-बीचमें प्रादूर्भूति होते रहनेसे जिसके उदयमै बाधा पड़ती रहती है तथा वह एक रसरूप भी रहने नहीं पाता-और जो पापका बीज है-तृष्णाकी अभिवृद्धि -द्वारा संक्लेश-परिणामोंका जनक होनेसे पापोत्पत्ति अथवा पापबन्धका कारण है-ऐसे (इन्द्रियादिविषयक सांसारिक ) सुखमें जो अनास्था-अनासक्ति और अश्रद्धा-अरुचि अथवा अनास्थारूप श्रद्धा-अरुचिपूर्वक उसका सेवन है-उसे 'अनाकांक्षणा'--निःकांक्षित---अंग कहा गया है। । यह महत्वपूर्ण गम्भीर ग्रन्थ, जिसका हिन्दीमें पहलेसे कोई अनुवाद नहीं हुआ था, वीरसेवामन्दिरसे हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित हो गया है।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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