SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ र समर्थ हैं । तो उसमें आस्थान नहीं रहता कारिका १३] निर्विचिकित्सिताङ्ग-लक्षण ४६ व्याख्या-यहाँ सांसारिक विषय-सुखके जो कर्मपरवशादि विशेषण दिये गये हैं वे उसकी निःसारताको व्यक्त करनेमें भले प्रकार समर्थ हैं। उन पर दृष्टि रखते हुए जब उस सुखका अनुभव किया जाता है तो उसमें आस्था, आसक्ति, इच्छा, रुचि, श्रद्धा तथा लालसादिके लिये कोई स्थान नहीं रहता और सम्यग्दृष्टिका सब कार्य बिना किसी बाधा-आकुलताको स्थान दिये सुचारु रूपसे चला जाता है । जो लोग विषय-सुखके वास्तविक स्वरूपको न समझकर उसमें आसक्त हुए सदा तृष्णावान बने रहते हैं उन्हें दृष्टिविकारके शिकार समझना चाहिये । वे इस अंग के अधिकारी अथवा पात्र नहीं। निर्विचिकित्सिताङ्ग-लक्षण स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रय-पवित्रिते । निजुगुप्सा गुण-प्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥१३॥ ‘स्वभावसे अशुचि और रत्नत्रयसे---सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्ररूपधर्मसे-पवित्रित कायमें-धार्मिकके शरीरमें जो अम्लानि और गुणप्रीति है वह निर्विचिकित्सिता' मानी गई है। अर्थात् देहके स्वभाविक अशुचित्वादि दोषके कारण जो रत्नत्रय-गुणविशिष्ट देहीके प्रति निरादर भाव न होकर उसके गुणोंमें प्रीतिका भाव है उसे सम्यग्दर्शनका 'निर्विचिकित्सित' अंग कहते है। व्याख्या---यहां दो बातें खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य उल्लिखित हुई हैं; एक तो यह कि, शरीर स्वभावसे ही अपवित्र है और इसलिये मानव-मानवके शरीरमें स्वाभाविक अपवित्रताकी दृष्टिसे परस्पर कोई भेद नहीं है--सबका शरीर हाड़-चामरुधिर-मांस-मज्जादि धातु-उपधातुओंका वना हुआ और मलमूत्रादि अपत्रित पदार्थाने भरा हुआ है। दूसरी यह कि स्वभावसे अपवित्र शरीर भी गुणक योगसे पवित्र हो जाता है और वे गुण
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy