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'कारिका ११]
प्रशंसयाऽङ्ग-लक्षण
___ व्याख्या--यहां 'तत्त्वं' पद यद्यपि बिना किसी विशेषणके सामान्यरूपसे प्रयुक्त हुआ है परन्तु 'सन्मार्गे' पदके साथमें होने से उसका सम्बन्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप उस सन्मार्ग-विषयक तत्त्वसे है जिसमें प्रायः सारा ही प्रयोजनभूत तत्त्वसमूह समाविष्ट हो जाता है, और इसलिये सम्यग्दर्शनादिकका, सम्यग्दर्शनादिके विषयभूत प्राप्त-आगम-तपस्वियोंका तथा जीव-अजीवादि पदार्थोंका जो भी तत्त्व विवक्षित हो उस सबके विपथमें सन्देहादिकसे रहित अडोल श्रद्धाका होना ही यहां इस अंगका विषय है-उसमें अनिश्चय-जैसी कोई बात नहीं है । इसीसे 'तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं और न अन्य प्रकार है' ऐसी मुनिश्चय और अटल श्रद्धाकी द्योतक बात इस अंगके स्वरूप-विषयमें यहाँ कही गई है । __इस पर किसीको यह आशंका करनेकी ज़रूरत नहीं है कि 'इस तरहसे तो 'ही' (एव) शब्दके प्रयोग-द्वारा 'भी' के आशयकी उपेक्षा करके जो कथन किया गया है उससे तत्त्वको सर्वथा एकान्तताकी प्राप्ति हो जावेगी और तत्त्व एकान्तात्मक न होकर अनेकान्तात्मक है,ऐसा स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने दूसरे ग्रन्थों में एकान्तद्यप्टिप्रतिषेधि तत्त्वं','तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूप' जैसे वाक्यों द्वारा प्रतिपादन किया है, तब उनके उस कथनके साथ इस कथनकी मंगति कैसे बैठेगी ?' यह शंका निर्मूल है; क्योंकि अपने विषयकी विवक्षाको साथ में लेकर 'ही' शब्दका प्रयोग करनेसे सर्वथा एकान्तताका कोई प्रसंग नहीं आता। जैसे 'तीन इंची रेखा एक इंची रेखासे बड़ी ही है' इस वाक्यमें 'ही' शब्दका प्रयोग सुघटित है और उससे तीन इंची रेखा सर्वथा बड़ी नहीं हो जाती, क्योंकि वह अपने साथ में केवल एक इंची रेखाकी अपेक्षा को लिये हुए है। इसी प्रकार जो भी तात्त्विक कथन अपनी विवक्षाको साथमें लिये हुए रहता है उसके साथ ही' शब्दका