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________________ २१ कारिका २] देश्य-धर्मके विशेषण और इसलिये मात्र प्राचीन होनेसे उस मिथ्याधर्मका समीचीन धर्मके रूपमें ग्रहण नहीं किया जा सकता । प्रत्युत इसके, सम्यक्त्व गुण जब उत्पन्न होता है तब मिथ्यात्वके स्थानपर नवीन ही उत्पन्न होता है; परन्तु नवीन होते हुए भी वह समीचीन है और इसलिये सद्धर्मके रूपमें उसका ग्रहण है-- उसकी नवीनता उसमें कोई बाधक नहीं होती। नतीजा यह निकला कि कोई भी धर्म चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन, यदि समीचीन है तो वह ग्राह्य है अन्यथा ग्राह्य नहीं है। और इसलिये प्राचीन तथा अर्वाचीनसे समीचीनका महत्व अधिक है, वह प्रतिपाद्यधर्मका असाधारण विशेषण है, उसकी मौजूदगी में ही अन्य दो विशेषण अपना कार्य भली प्रकार करने में समर्थ हो सकते हैं; अर्थात् धर्मके समीचीन (यथार्थ) होने पर ही उसके द्वारा काँका नाश और जीवात्माको संसारके दुःखोंसे निकाल कर उत्तम सुखमें धारण करना बन सकता है अन्यथा नहीं। इसीसे समीचीनताका ग्राहक प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकारके धर्मोको अपना विषय बनाता है अर्थात् प्राचीनता तथा अर्वाचीनता का मोह छोड़कर उनमें जो भी यथार्थ होता है उसे ही अपनाता है। दूसरे, धर्मके नाम पर लोकमें बहुतसी मिथ्या बातें भी प्रचलित होरही हैं उन सबका विवेक कर यथार्थ धर्मदेशनाकी सूचनाको लिये हुए भी यह विशेषण पद है। इसके सिवाय, प्रत्येक वस्तुकी समीचीनता ( यथार्थता) उसके अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावपर अवलम्बित रहती है-दूसरेके द्रव्यक्षेत्र-काल-भावपर नहीं-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमेंसे किसीके भी बदल जाने पर वह अपने उस रूपमें स्थिर भी नहीं रहती और यदि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी प्रक्रिया विपरीत होजाती है तो वस्तु मी अवस्तु होजाती है अर्थात् जो प्राय वस्तु है वह त्याज्य के वस्त्वेवाऽवस्तुतां याति प्रक्रियायाविपर्ययात् । —देवागमे, समन्तभद्रः
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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