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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ और जो त्याज्य है वह ग्राह्य बन जाती है । ऐसी स्थितिमें धर्मका जो रूप समीचीन है वह सबके लिये समीचीन ही है और सब अवस्थाओंमें समीचीन है ऐसा नहीं कहा जा सकता-वह किसीके लिये और किसी अवस्थामें असमीचीन भी हो सकता है। उदाहरणके रूपमें एक गृहस्थ तथा मुनिको लीजिये, गृहस्थके लिये स्वदारसन्तोष, परिग्रहपरिमाण अथवा स्थूलरूपस हिंसादि के त्यागरूपव्रत समीचीन धर्मके रूपमें ग्राह्य हैं-जब कि वे मुनि के लिये उस रूपमें ग्राह्य नहीं हैं-एक मुनि महाव्रत धारणकर यदि स्वदारगमन करता है, धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहोंको परिमाणके साथ रखता है और मात्र संकल्पी हिंसाके त्यागका ध्यान रखकर शेष आरम्भी तथा विरोधी हिंसाओंके करने में प्रवृत्त होता है तो वह अपराधी है; क्योंकि गृहस्थोचित समीचीन धर्म उसके लिये समीचीन नहीं है । एक गृहस्थके लिये भी स्वदारसन्तोषव्रत वहीं तक समीचीन है जहां तक कि वह ब्रह्मचर्यव्रत नहीं लेता अथवा श्रावककी सातवीं श्रेणी पर नहीं चढ़ता, ब्रह्मचर्य व्रत लेलेने या सातवीं श्रेणी चढ़ जाने पर स्वदारगमन उसके लिये भी वर्जित तथा असमीचीन होजाता है। ऐसा ही हाल दूसरे धर्मो, नियमों तथा उपनियमोंका है। उपनियम प्रायः नियमोंकी मूलदृष्टि परसे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी सम्यक् योजनाके साथ फलित किये जाते हैं; जैसे कि भोज्य पदार्थोंके सेवनकी कालविषयक मर्यादाका उपनियम, जो उस कालके अनन्तर उन पदार्थों में त्रस जीवोंकी उत्पत्ति मानकर उन जीवोंकी हिंसा तथा मांस भक्षणके दोषसे बचनेके लिये किया जाता है; परन्तु वह काल-मर्यादा जिस तरह सब पदार्थोंके लिये एक नहीं होती उसी तरह एक प्रकार या एक जातिके पदार्थोंके लिये भी सब समयों सब क्षेत्रों और सब अवस्थाओंकी दृष्टिसे एक नहीं होती और न हो सकती है। ग्रीष्म या वर्षा ऋतुमें उष्ण
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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