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समीचीन धर्मशास
[ श्र० १ और स्वभावसे अपवित्र शरीर भी धर्म (रत्नत्रय) के संयोगसे पवित्र हो जाता है । अतः अपवित्र शरीर एवं हीन जाति धर्मात्मा तिरस्कारका पात्र नहीं - निर्जुगुप्सा अंगका धारक धर्मात्मा ऐसे धर्मात्मासे वृणा न रखकर उसके गुणों में प्रीति रखता है । और जो जाति आदि किसी मदके वशवर्ती होकर ऐसा नहीं करता, प्रत्युत इसके ऐसे धर्मात्माका तिरस्कार करता है वह वस्तुतः आत्मीयधर्मका तिरस्कार करता है - फलतः आत्मधर्मसे विमुख है; क्योंकि धार्मिक के विना धर्मका कहीं अवस्थान नहीं और इसलिए धार्मिकका तिरस्कार ही धर्मका तिरस्कार हैजो धर्मका तिरस्कार करता है वह किसी तरह भी धर्मात्मा नहीं कहा जा सकता । ये सब बातें समन्तभद्र स्वामीकी धर्म-मर्मज्ञताके साथ साथ उनकी धर्माधिकार विषयक उदार भावनाओंकी द्योतक हैं और इन सबको दृष्टि पथमें रखकर ही 'सत्वान्' पद सब प्रकार के विशेषणोंसे रहित प्रयुक्त हुआ है । अस्तु ।
अब रही 'समीचीन' विशेषरणकी बात, धर्मको प्राचीन या अर्वाचीन आदि न बतलाकर जो 'समीचीन' विशेषणसे विभूषित किया गया है वह बड़ा ही रहस्यपूर्ण है; क्योंकि प्रथम तो जो प्राचीन है वह समीचीन भी हो ऐसा कोई नियम नहीं है । इसी तरह जो अर्वाचीन ( नवीन ) है वह असमीचीन ही हो ऐसा भी कोई नियम नहीं है । उदाहरण के लिये अनादि- मिथ्यात्व तथा प्रथमोपशम- सम्यक्त्वको लीजिये, अनादि कालीन मिथ्यात्व प्राचीनसे प्राचीन होते हुए भी समीचीन ( यथावस्थित वस्तुतस्त्वके श्रद्धानादिरूपमें ) नहीं है
X स्वभावतोऽशुचौ कार्य रत्नत्रय - पवित्रिते । निर्जुगुप्सा गुण - प्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता । (१३) * स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥ (२६)