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________________ आर्यमतलोला । करके कार्यों को सिद्ध करने की इच्छा | तुम लोग सेवन करो ।” | ऋग्वेद दूसरा मंडल सूक्त ३५ ऋ० १९ "हे मनुष्यो जो इस अग्नि का सुंदर सैन्यके समान तेज और अपने गुणों से निश्चित श्राख्या अर्थात् कथन प्राणों के पौत्र के समान बर्तमान व्यवहार से बढ़ता है या जिसको प्रवल यौवनवती स्त्री इस हेतु से अच्छे प्रकार मदीप्त करती हैं वा जो तेजोमय शोभन शुद्ध स्वरुप जल वा घी और अच्छा शोधा हुआ खाने योग्य प्रम् इस अग्निके सं ऋग्वेद पंचम मंडन मुक्त ६ ऋ०२ बंध में वर्त्तमान है उसको "जिसकी से प्रशंसा करता हूं वह । ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त १३ ० ३ जानो - " तुम अग्नि है उसके प्रयोग से अध्यापकों में अग्नि जगाता हूं जो यक्षमें जलाई के लिये अन्न को भब प्रकार धारण! जाती है और काली, कराली, मनोज कीजिये,, ऋग्वेद पंचम मंडल ए ११० ४ "हे विद्वान् जिम की संपूर्ण माओ ग्रहण करने योग्य अग्नि प्रशंसा की प्राप्त होता है-' "" करते हैं वे संपूर्ण ऐश्वर्य युक्त होते हैं। (नोट) उम ममय दोवासलाई तो घी नहीं इसी कारण दो वस्तुओं को रगड़ कर वा टकराकर अग्नि पैदा करते थे ऋग्वेद पंचम मंडल सूक्त ३ ऋ० ४ अग्नि को विस्तारते हुए विद्वानम नुष्य चिल्ला चिल्ला उसका उपदेश दे रहे हैं वे मृत्यु रहित पदवी को मात होद ( ४३ ) वा, सुलोहिता सुवर्णा, स्फलिंगिनों और जिसकी जीभ हैं अग्नि को मात जीभ हैं ॥ वेदांके पढ़ने से यह ज्ञात होता हैकि नम समयके बहशी लोगोंने अग्निको ऋग्वेद प्रथन मंडल कूल ९४८ ऋ०९ पाकर और उससे भोजन आदिक - "विद्वात्जन मनुष्य मम्बन्धिनी प्र.नेक प्रकारको सिद्धि को देखकर अग्नि जाओं में सूर्य के समान अद्भुत और रूप के लिये विशेषताने भावना करने वाले जिस अग्नि को सब ओर से निरंतर धारण करते हैं उस अग्निको तुम लोग धारण करो '" पुजना प्रारम्भ किया और अग्नि को जलाकर उसमें घी दूध आदिक वह द्रव्य जिनको वह सबसे उत्तम रामकते थे अग्निमें चढ़ाने लगे इस प्रकार की पूजाको दह लोग यज्ञ कहते थे फिर कुछ सभ्यता पाकर यक्ष के संबंध के - नेक गीत उन लोगों ने बना लिये । बंदों में ऐसे गीत बहुत ही ज्यादा मि ऋग्वेद सप्तम मंडल सूक्त १५ ०६ " हे मनुष्यो ! वह अत्यन्त यज्ञकर्ता देने योग्य पदार्थों को प्राप्त होनेवाला पावक प्रति हमारी इस गुत्रु क्रिया | लते हैं:को और बाणियों को प्राप्त हो उसको स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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