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________________ प्रार्यमतलीला 0 १३९ मती जाता है और पढ़ने में ध्यान किस कर्म का क्या क्या फल मिल रहा कम लगाता है घरमा अधिकतर खेल है ? इस से स्पष्ट विदित होता है कि कद में रहता है पाठशाला से उठी- कर्मों का फल देने वाली कोई चेतन लेख, सर्व पुस्तकें उससे छीन लेवे और शक्ति नहीं है बरगा वस्तु स्वभाव ही गेंद बल्ला ताश, चौपड़ सादिक खेल कर्म फल को कारण है अर्थात् प्रत्येक कोबस्त उसको ले देवे? या किसीका वस्तु अपने स्वभावानुसार काम करती बालक व्यभिचारी मालम पाठे तो उस उम ही से जगत् के सघ फल प्राप्त | को ले जाकर रंडियों के चकले में छोड़ होते हैं। जो पुरुष मदिरा पीधेगा तो देवे? वा बालक और कोई अपराध मदिरा और जीव के शरीर का स्वकरे तो राम को उसका पिता उस ही भाव मिल कर यह फल अवश्य प्राप्त अपराधका अधिक अभ्याम कराये और होगा कि पीने वाले को नशा होगा, अपराध करने का अधिक सुभीता और उसके ज्ञान गुण में फरक प्रावैगा और अधिक प्रेरणा देव और माच पाय अनेक कुचेष्टा उत्पन्न होगी । मदिरा यह भी कहता है कि मो कोई विद्या को इससे कुल मतलब नहीं है कि पढ़ेगा उसको मैं मुख दंगा और जो किसी का भला होता है या बरा किभंपराध करेगा उसको दंड ट्रंगा । यामी को दंड मिलता है या लाभ वह वह पिता महामूर्ख और अपनी संतो अपने स्वभाव के अनुसार अपना तान का पूरा शत्रु नहीं है? अयश्य | काम करेगी। है-इस कारण प्यारे भात्यो ! जीव को बहुत से मनुष्य ऐसे मूर्य और जिकर्म का फल देने वाला कदाचित मी हा इंद्री के ऐमे बशीभत होते हैं कि परमेश्वर नहीं हो सकता है-परमेश्वर | वह धीमारीमें परहेज नहीं करते और सपा बरण कोई भी चेलन अर्थात कछ| उन वस्तुओंको खा लेते हैं जिन को भी जान रखने वाला ऐसा उलटा कृत्य वैद्य बताता है कि इनके खाने से बीनहीं कर सकता है। |मारी अधिक बढ़ जावेगी ऐसी बस्तु-1 इसके अतिरिक्त यदि कोई चेतन |ों के खाने का फल यह होता है कि शक्ति जीवोंके कर्म का फल दिया क बीमारी अधिक बढ़ जाती है और रती तो अवश्य जीव को यह सुझा रोगी बहुत तकलीफ उठाता है। दिया करती-अच्छी तरह बता दिया हुत से लोग यह कह दिया करते हैं करती कि अमक कर्म का तम को यह कि कोई मनुष्य अपना नुकसान नहीं। फल दिया जाता है जिससे घह साव- चाहता है और कोई अपराधी अपनी धान हो जावै और भागामी को उस | राजी से कैदखाने में जाना नहीं चापर असर पड़े जीव को कुछ भी नहीं हत्ता है परन्तु नित्य यह ही देखने में मालम होता है कि मुझ को मेरे किस | आता है कि बहुत से रोगी कुपथ्य से - - -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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