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________________ १३८ श्रार्यमतलीला ॥ | नाश, क्रूरता का होना, नास्तिक्य - र्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धाका नरह ना, भित्र २ अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का प्रभाव और किन्हीं व्यसनों में फंसना होवे तब तमो गुबका लक्षण विद्वान् को जानने योग्य हैइस ही प्रकार मृत्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ २५४ पर स्वामी जी लिखते हैं । किया करे, वा सिंह आदिक क्रूर जीव बना दिया जिससे उस का उदर पोपण भी जीव हिंसा ही हुआ करे और हिंसा के सिवाय और कुछ काम ही न हो । जो कोई बी व्यभिचारिणी हो उस को यह दंड दिया कि वह रंडी के घर पैदा की जावे जहां सदा व्यभिचार ही होता रहे। इन ही प्रकार अन्य अपराधों के भी दंड दिये । जो मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी अथवा यदि हिंसा के अपराध का दंड घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ, निंदित कर्म करने द्वारे मिह, व्याघ्र, बराह अर्थात् सूकर हिंसक बनाना और व्यभिचार के छपके जन्म को प्राप्त होते हैं। जो उत्तम राध का दंड व्यभिचारी बनाना नभी हो तो भी हिंसक, व्यभिचारी तमो गुणी हैं वे श्वार, सुन्दर पक्षी, डाकू यादिक जितने पापी जीव दृष्ट पड़ते लिये अपनी प्रशंसा करने हारे राक्षस दांभिक पुरुष अर्थात् अपने सुख के हैं यह सब किसी न किसी अपराधके जो हिंसक, पिशाच, अनाचारी अर्थात ही दंड में ऐसे बनाये गये हैं जो आ-मद्यादि के आहार कर्ता और मलिन rritat afva ure करें । देखिये रहते हैं वह उत्तम तमोगुण के कर्म कर स्वामी दयानन्द जी भी मत्यार्थ प्रकाश | फल है जो मद्य पीने में प्रासक्त हो के पृष्ठ २५२ - पर लिखते हैं:ऐमे जन्म नीच रजो गुरु का फल है | "मन से किये दुष्ट कर्मों में चांन प्रादि का शरीर मिलता है-" | " रजोगुका उदय मत्य और तमोगुण का धन्ध होता है तय प्रारंभ में रुचिता धैर्य त्याग प्रसतु कर्मों का ग्रहण निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है तभी समझना कि रजो गुण प्रधानता से मुझ में वते रहा है प्यारे भाइयो! अब आपने जाम लिया कि पाप कर्म का फल यह मिलता है कि आगामी को भी पाप में ही शामक्त रहे । परन्तु क्या ईश्वर ऐसा फल दे सकता है? कदाचित नहीं बरण ऐसी दशा में ईश्वर को कर्मों के फलका देने वाला बताना परमेश्वर की कलंकित करना और उसको अपराधी ठहराना है क्योंकि जो कोई अप राध की सहायता वा प्रेरणा करता है वह भी अवश्य अपराधी ही होता है। क्या कोई पिता ऐसा हो सकता है जो अपने बालक को जो पाठशाला में क | " | "जब तमोगुणका उदय और दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यंत लोभ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, प्रत्यन्त प्रालस्य और निद्रा, धैर्य का | -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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