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________________ १४० आर्यमतलीला ॥ यम करके अपने हाथों अपना रोग | देखने में आता है कि अनेक प्रकार बढ़ा लेते हैं और प्रत्यंत दुःख उठाते। उलटे काम करके नुकसान उठाते हैं हैं। बहुत से बालकों को देखा है कि | अर्थात् अपने हाथों अपने आप को वह खेल कूद में रहते हैं और विद्या- मुसीबत में डालते हैं । ध्ययन में ध्यान नहीं देते। उनके माता संसारी जीवों पर अभ्यास और संपिता और मित्र बहुतेरा समझाते हैं। स्कार का बहुत असर पड़ता है। यदि कि हम समय का खेल कूद तुम को ब- वह विद्यार्थी जो पढ़ने पर बहुत कथाहुत बुःखदाई होगा परन्तु वह खेल न रखता है, एक महीने के वास्ते भो कूद में रह कर स्वयम् विद्या विहीन पाठशाला से अलग कर दिया जाये रहते हैं और मूर्ख रहकर अपनी जि' और उसको एक महीने तक खेल कूद न्दगी में बहुत दुःख उठाते हैं । बहुत हो में लगाया जाये तो महोने के पसे पिताओं को ममकाया जाता है कि | श्चात् पाठशाला में जाकर कई दिन तुम छोटी अवस्था में अपनी संतान | तक उस की रुचि पढ़ने में नहीं लगेका विवाह मत करो परन्तु वे नहीं | गो बरक खेल कूद का ही ध्यान प्रामानते और जब संतान उन की बोर्य ता रहेगा। इस हो प्रकार यदि मसे होन निर्बल नपुंसक हो जाती है तो आदमी को भी दुष्ट मनुष्य को संगति माथा पीटते हैं और हकीमों से पुष्टी | में अधिक रहना पड़े तो कुछ कुछ दुके नुमखे लिखवाते फिरते हैं। बहुत | ष्टता उस भले मनुष्य में भी भ्रा जाये से धनवानों को यह समझाया जाता गो । इन सब कामों का फल देने वाली है कि वह बेटा बेटीके विवाह में कोई अन्य शक्ति नहीं आवेगो बरब धिक द्रव्य न लुटायें परन्तु वह नहीं | यह उस के कर्म ही उस को बुरे फल मानते और बहुत कुछ व्यर्थ व्यय करके के दायक होंगे । अपने हांथों दरिद्री हो जाते हैं। इ कारण से कार्य की मिट्टि स्वयम् त्यादिक संसार के मारे कामों में कोई स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं । तब फल देने वाला नहीं जाता है वरण | जोध का कर्म जो कारण है उस से जैमा काम कोई करता है उसका को कार्य, अर्थात् कर्म फल अवश्य प्राप्त होफल है उनको प्रवश्य भांगना पड़ता । गा इस में चाहे जीव को दुःख हो व है और यदि यह दाम छोटा है और सुख हमको प्राचर्य है कि स्वामी जी स्वयं उसका फल दुःख है तो दुःख भी उसको यू जीव और प्रकृति अर्थात् जड़ पदार्थों अवश्य भोगना पड़ता है। वास्तव में को नित्य मानते हैं और जब इनको यह दुःख मने छाप ही अपने वास्ते नित्य मानते हैं तो इनके स्वभावको भी पैदा किया । जगत में नित्य यह ही मित्य बताते हैं । तो क्या यह सर्व
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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