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________________ १२४ मार्यमतलीला ॥ और उस स्थान से बाहरके स्थान से | के वास्ते स्वामी जी ने यह सब प्र-1 प्रमीति करने लगे गे? पा स्वामी जी | पंच रचा हैकी समझमें मुक्ति प्राप्त होने पर भी स्वामी जी ! यह मानने से कि मुक्का राग द्वेष जीव में बाकी रह जाता है जीव इच्छानुमार एमते फिरते रहते । हैं बड़ा भारी बखेड़ा उठ खड़ा होगा क्योंकि श्राप सत्यार्थप्रकाश में यह में बनी रहती है। शायद यह ही लिख चुके हैं कि “यदि मुक्ति से जीव समझ कर कि उस में ऐसी सपा | लौटता नहीं है तो मुक्ति में अवश्य पिका कोई अंश वाकी रह जाता है स्वामी जी ने या कहा हो कि | भीड़ भरा हो जावेगा, जिससे वि. |दित होता है कि भाप मुक्ति जीवों मुक्ति जीव अपनी इच्छानुसार प्रा-का ऐमा शरीर मानते हैं जो दूमरे मंद भोगता हुना सर्व ब्रह्मांड में फि मुक्त जीव के शरीर को रोक पैदा करे रता रहता है। परंतु ऐसा मानने से ऐसा शरीर धरते हुने क्या यह मम्भव तो बड़ी हानि भावंगी क्योंकि जय नहीं है कि एक मुक्ति भी जिभ मएक स्थान से प्रीति और अन्य स्थान मय जिस स्थान में जाना चाहै उमही से प्रप्रीति स्वामी जी के कथनानुमार | स्थान में उन हा ममय दूसरा मुक्त हो सकती है तो अन्य वस्तुओं से प्री-जीव जाने की वा प्रवेश करने की इ. ति वा अग्रीति क्यों नहीं हो सकती ? | छा रखता हो और स्वामी जी के और जब स्वामी जी के कथनान मार | कथनानुसार मुक्त जीवों का ऐमा शमुक्ति जीय मर्व बना में घमता फि-रोर है नहीं जो एक ही स्थान में कई रता रहना है तो नहीं मालूम किम जीव मना के वरण एक जीव मरे अम्त में प्रीति फर बैठे और किम विजय के मास्ते भी करता है तब तो षय में नामक्त हो जावे वा न मानम | उन दोनों मुक्ति जीवों में जो एक ही किस पस्त वा जीवसे अप्रीति प्रांत स्थान में प्रवण करना चाहते होंगे खब | द्वेष कर लेवे और उमसे स्लर धैठे ? | | लडाई होती होगी वा एक मुक्त बाब को निराश होकर बड़ा से नीटना प. इस प्रकार मुक्ति जोय के एक स्थान इता दोगा और इम में अवश्य उसको में अपने मान स्वरूप में स्थिर न र-! दुःखाता होगा और ऐमा भी हो हने और सरुवानुमार ब्रह्मांड में बि-कता है कि जिधर एक मुक्त जोन चरते फिरने से ममारी और मुक्ति जीव जाना हो घर से दूसरा मुक्त भीष में कुल भी अंतर नहीं रहता है और ना हो और दोनों प्रापस में टकरा शायद इम ही अंतर को हटाने और यदि कोई कहने लगे कि एक उन मुक्ति के साधो से अचि दिलाने ही में से अनग-हटमा दुमरे को रास्ता दे
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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