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________________ भार्यमतलीला ॥ लोहा अग्नि में पहकर लाल अग्नि | काम हो जाता है तो उम दुःख के दूर रूप ही हो जाता है और अंगारा होने को यह जीव सुख मान रोना है मालम होने लगता है इम ही प्रकार परन्त इच्छादिर होकर परमात्मा के ध्याममें ऐना की तामीन और इसा दुध पाजो चित्तको हो जाये कि अपने प्रापेका भी ध्यान प्रवृत्ति मंसार को नाना वस्तयों और न प्राइम ही अवस्था में परमाम-नाना रूप कार्यों पर होती है उस प्रव प्राप्त होता है शक्ति के रुकनेमे और जीवात्माके मा. वह प्रामद ऐसा मामन्द नहीं है जो स्ला में स्थिर होनेसे किसी प्रकार भी संसारियों को नामाप्रकार की वस्तुओं दुःख नहीं हो सकता है और न पर के भोगने वा मानाप्रकार की क्रियाओं के करने से प्राप्त होता है बरख संमार | संसार का झूठा मुख प्राप्त होता है जो का सुख हम सुख के सामने दुःख ही है वास्तव में दुःख का किंचित् मात्र दूर और झूठा मुख है। अमलो मानन्द होना है घरमा बम प्रकार रागद्वेष दूर और परमानन्द जीव की पत्तियों के होकर और जीवास्ना शुद्ध और निर्मल रुकने और प्रात्मामें स्थिर होनमें ही होकर उमके जानके प्रमाण होभेमे जो होता क्योंकि ममारका मुख तो यह सुग्म होता है वह ही मचासुख और है कि किसी बात की इच्छा मृत्पन | परनानन्द है। हर्ष और दःख प्राप्त हुना। फिर म | परमानंद का उपयुक्त स्वरूप होने इच्छा के दूर दाने में जो दुःख की नि- पर भी स्वामी दयानन्द मरस्वती जी पत्ति हई उमको मुख मान लिया। समार मुख को ही सुख मानते हैं और संमार के जिसने मुख हैं व सम मा. मुक्ति जीव को भी पानंद की खोजमें | पक्षिक हैं। विमा दःख के संमार में | | सव ब्रमांड में भलता हुया फिराना कोई मुख हो ही नहीं सकता है । यदि | चाहते हैं और एक स्थान में स्थिर प्रभख म लगे तो भोजन खाने में मुग्यन पने सान स्वरूप में मग्न मुक्त जीवों हमा करै यदि पास न लगे तो पानी | को बंधन में बंधा हुआ बताकर जैनिपीने से सुख नहुमा कर या कामकी |यों की हंमी उठाते हैं-परंतु वास्तव | पीहा न होमो स्त्री भोग में कुछ भी मामन्द न हो। इसही प्रकार चनमा | में हंमी उसी को उनती है जो अटका फिरना सैर सपाटा सादिक जिन २ | पच्च और उलटी यातें बनाता है. संमारीक कामों में सुख कहा जाता है| हमको अत्यंत प्राश्चर्य है कि स्वामी या यही ही है कि प्रथम इच्छा - जी ने यह कैसे कह दिया कि, मुक्त स्पन होती है और हम इच्छासे दुःख | जीवों के एक स्थान में स्थिर रहने से होता है फिर जब पच्छाके अनुमार उमको उग स्थान से.प्रीति होजावेगी|
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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