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________________ भार्यमतलीला चुका है शिवह मोक्षको कोमा दुःख दा- | होकर परमात्मासे योम लगाता है मो| ई मानते थे। उम को परमानन्द प्राप्त होता हैस्वामी जी का अभिप्राय कुछ भी | स्वामी दपानन्द जी ने जो सत्यार्थ हो हमतो यह खोज करनी है कि जिस प्रकाश में पर लिखा है कि मुक्तजीव प्रकार जैनी मानते हैं-जीव के स्थिर | ब्रन में वास करता है उस के भी केरहने में परमानंद है वा जिस प्रकार | बल यह ही अर्थ हो सकते हैं कि नीय खामी दयानंद बी सिखाते हैं-सीवके अपनी प्रास्मा में स्थिर होकर परमा. खेच्छानुसार सर्वस्थान में विचरने में स्मा से युक्त हो जाता है इस ही का. मुख है ? इम की परीक्षा में हम अ | रण स्वामी जी ने मत्यार्थप्रकाश में पने मार्य भाइयों के वास्ते उपनिष | लिखा है कि मुक्त जीव ब्रह्मके मदृश हो जाता है। हम मर्च को स्पष्ट क द् का एक लेख पेश करते हैं जिमको रने के वास्ते स्वयम् स्वामी दयानन स्वामी जी ने भी स्वीकार कर के म जी ऋग्वेदादि भाष्य भमि का के पष्ठ त्यार्थ प्रकाश के पृष्ठ १८७ पर लिखा है | १८६ पर लिखते हैंसमाधि निर्धनमानस्य चेनसोनिशे- से अग्नि के बीच में लोहा भी शितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत् । न श-अग्नि रुप हो मासा है। मी प्रकार पते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयम्त दन्तः | परमेश्वर के ज्ञान में प्रकाशमय होके करणेन गृह्यते ॥ अपने शरीर को भी भूले हुए के सशिम पमष के समाधि योगसे प्रवि मान जान के प्रात्मा को परमेश्वर के द्यादि मल नष्ट हो गये हैं आत्मस्यहो प्रकाश स्वरुप प्रानन्द और जामसे कर परमात्मा में वित्त जिनने लगा | परिपूर्ण करनेको समाधि कहते हैंया है उम को जो परमात्मा के योग का मुख होता है वह बाबी से कहा लिलाया था कि प्रथम समापिल पूर्वोक्त उपनिषद् के श्लोक में पा नहीं जा सकता स्पोंकि उस प्रानंदको दिशाट मग प्रांता , नीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण द्वेष भादिक को दूर करे फिर अपनी करता है। मात्मा में स्थिर हो जाये और इस पाठक गत ! म सपर्यत लोक में बाक्य में समाधि का खप दिखलायह दिखाया गया है कि समाथि से या कि संमार से पित्त की पत्तिको अविद्यादि ममा नष्ट हो जाते हैं और हटा कर यहां तक कि अपने शरीरको जीव इस योग्य हो जाता है कि वह भी भाम कर परमात्मा के पास में पस अपनी प्रास्मा में नम्बर दो सके इस प्रकार स्मीन हो जावै कि अपने भापे प्रकार 'जय जीव अपनी प्रात्मा खिरका भी ध्यान न रहे जिस प्रकार कि
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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