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________________ भार्यमतलीला ॥ - सहा एक प्रकारका ही रस चखने रो| "इत्यादि बचनों का अभिप्राय यह वह मानन्द नहीं प्रा मक्ता जो जाना है कि संन्यागियों को जो सुवर्ण दान प्रकार के रस चखनेसे पाता है म दे तो दाता नरक को प्राप्त होयेकारण मुक्ति जीवों को संसार के ना- पाटक गगो ! संन्यासी का काम है। नाप्रकार के विषयभोग भोगने के कि संमार को त्याग करने और अपने वास्ते मुक्ति को कोहकर अघप ममा | पित्त को स्थिर करने की कोशिश कर-1 रमें माना चाहिये केवन इतना ही ता रहै और मंसार व्यवहार में न पड़े। नहीं वरण स्वामीजीने तो यहां तक परंतु सुवर्ण अर्थात् नकदी माल संमार लिख दिया है कि मुक्ति केंद के भमा में फंसाने का कारण होता है इस कान है यदि वह कुछ कान के वास्ते हो। रण इम श्लोक में झिमी ने उपदेश तो ज्यों त्यों भागती भी जावै परन्तु दिया है कि जो कोई सन्यासी को पदि सदा के वास्ते हो तो अत्यन्त ही नकदी का दान देना है वह उस संदुःस दाई है । इमसे ज्यादा स्वामीजी न्यासी को संमार में फंसाने का कारस अपने हायक विचारसा और क्या प-1 बनाना है अर्थात् अधर्म करता है परंतु रिचय देते? स्वामी दयानंद जी उन लोक से बपद्यपि मुक्तिके माधनोंका वर्णन क-हुत नाराज हुवे हैं और श्लोक लिख रते हुये पूर्वाचार्यों के बाक्यों के प्रन-कर वह अपनी टिप्पणी इस प्रकार सार स्वामी जी को यह हो लिखनाते हैं। पड़ा कि मन्यामी अपने चित्त की वृक्ति "यह बात भी वर्णाश्रम विरोधी संको संसार की ओर से रोककर स्थिर प्रदायी और स्वार्थ सिंध वाले पौराकरे परन्तु ऐसा जिसनेका दुःव उनके गिाकों की करपी हुई हैं। क्योंकि सं. हुदध में बराघर बनाही रहा और वह यामियों को धन मिलेगा तो वे ह. यही चाहते रहे कि मुक्ति का मा: मारा खंडन बहुत कर सकेंगे और हधन करने वाला यही माना जावे मो मारी हानि होगी तथा वे हमारे भासंसार में ही लगा रहै। इस ही हेतु धीन भी न रहेंगे और जब भिक्षा स्वामी जी सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ १३५ टिपवहार हमारे आधीन रहेगा तो पर नीचे लिखा एक श्लोक लिपकर पुरते रहेंगेउसका सराहन करते हैं | इस उपर्युक्त नेख से स्वामी दयानंद | पतीनांकाञ्चनंदद्या जी का अभिप्राय पाठकों को मालूम | ताम्बूलंब्रह्मचारिणाम् । होगया होगा कि वह संन्यासियों की | चौराखामभयंदद्या वृत्ति किस प्रकार की हो जानी चास्सनरोनरकं ब्रजेत् ॥ हते थे और यह पहले ही मालूम हो - - 9F
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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