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________________ चार्यमतलीला ॥ - हैं जिनको कइ भी इच्छा नहीं है और नुष्य की वृत्ति मदा हर्ष शोक रुप एक स्थानमें स्या हैं और उनको ब-दुःस सागर में ही डूबी रहती है। धन में बतलाते हैं और इसके विरु- प्यारे पाठकों ! जरा स्वामीजी के द यद्ध द्धि करना चाहते हैं कि मुक्त इम सेख पर विचार कीजिये । जिस होकर भी जीव सारे ब्रह्मांड में मजे प्रकार तागाय का जल स्थिर होजाता सुहाता फिरता रहता है "तुल्टा सोग है। इस प्रकार मनकी वृत्तिको क कोतवाल को डांट" वाला दृष्टान्त यही कर स्थिर करने का उपदेश स्वामीजी घटता है ऋग्यदादि भाष्य भमिका लिखते हैं पारे प्रार्दा भाग्यो! हम बारम्वार और शित स्थिर होने से आनन्द मापसे प्रार्थना करते हैं कि प्राप मिऔर चंचल होन मे टुःख बताते हैं - द्वान्तों को विचारें और प्राचार्यों के रन्तु मत्यार्थ प्रकाशमें जहां उनकी जे. लेखों को पढ़ें स्वामी दयानन्द जी के पृ-नियाँक ख गठन पर लेखनी उठाने की वापर विरुद्ध बायों पर निर्भर न र हैं। आवरता हुई वहां मुक्ति जीवोंके क्योंकि स्वामी दयानन्दजी ने कोई धर्म एक स्थानमें स्थिर रहने को बंधन ब. व धर्म का मार्ग प्रकाश नहीं किया है ताया और मर्च अलाम में स्वच्छान वरणा धमजाल रचा है। प्राइये ! हम हम मार घमने फिरने को परमानन्द मम-1 आप को स्वयम् स्वामी दयानन्दजी के वयम् स्वामी दयानन्दजाक झाया । यदि इम ही प्रकार म्यामोगी। ही लेख दिखावें जिससे उनका मव धमको जनियों का खरान करना था तो। मान प्रगट हो जाये। उनको चित था कि मुक्ति का माध ग्वेदादि भाष्य भमिका पृष्ठ ११२ न चित्त वृत्ति का रोकना और मनको "जैसे जनके प्रवाहको एक ओर मे मिया करना न बताते घर वाममा दृढ़ बांधके रोक देते हैं नाजिम और गियों की तरह स्वेच्छाचारी रहने नीचा होता है नम और चमके कहीं स्थिर होजाता है । इमी प्रकार मन |भीर मनको बिस्कुन न रोकने में ही की दन्ति भी जब बाहर मे सकती है। मुक्ति मुक्ति बनाते और चित्तकी वृत्ति को सब परमेश्वर में स्थिर होजाती है। एक रोकना, नपाममा और ध्यान प्रादिक तो चित्तकी वृत्ति को रोकने का यह को महा बंधन और दुःख का कारण प्रयोजन है और दूमरा यह है कि न. बताते । मुक्ति से लौटकर फिर संसार पासक योगी और समारो मनष्य जय में श्राने की प्रावश्यकता मिद्ध करने व्यवहार में प्रवत होते हैं तब योगीका में जी २ हेतु स्वामी जीने दिये हैं उन वृत्ति सदा हर्ष गोक रहित मानन्द | से तो यही मालम होता है कि स्वासे प्रकाशित होकर उस्माद और प्रा- मीजीकी पच्छा तो ऐमी ही थी क्योंकि मन्द युक्त रहती है और मंमारके म- । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि, मीठा वा
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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