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________________ - मार्यमतलीला ॥ ११९ संसार से प्रेम कराना है इस कारण | से अनीति होजाती होगी । परन्तु मुक्तिजीवका एक स्थान में स्थिर रा स्वामी जी ने यह न ममझा कि ऐसा मा उनकी कब सुहाता है। वा तो कहने से स्वामीजी अपनी ही हमीक-1 वह ही चाहते हैं कि जिस प्रकार सं- राते हैं क्योंकि यह अनोखा मिद्धान्त सारी जीव इच्छा बश विधरते फिर-फिकर्मों के बंधन मे मुक्त होकर और | सम ही प्रकार मुक्त जो यों की रागद्वेष को छोड़कर और स्वच्छ निबालन कहा जाये मक्त जीवों में मंमार | मन होकर और मुक्तिको प्राप्त होकर भी के जीवन का विशेषता सिद्ध नहो । प्रोनि और अप्राति करने का गुणा स्वामी जी सत्यार्थप्रकाश के पष्ठ ४४५ याकी रहता है और इधर उधर वि. पर लिखने हैं: धरने की भी इच्छा रहती है, स्वामी "वह शिला पैंतालीम लाम्ब से दूनी जीके हो मुख मे गोभना है अन्य कोई ना नाग्य कोशकी होती तो भी वे मक्त विद्वान् एमा ढीठ महीं हो सकता है जीव बंधन में क्योंकि उस शिला कि ऐसी उलटी वार्ते बनावै । अफमो या शिवपुर के बाहर निकलने से सन | स ! स्वामीजीने अनेक ग्रंथ पढ़े परंस् की भक्ति छट जाती होगी और मदा मुक्ति और प्रानन्द का नाश न जाना अनमें रहने की प्रीमि और उममे खा. | स्वामीजी चारे तो प्रानन्द इस ही हर जाने में श्रमीति भी रहती होगी। में ममझने रहे कि जोव सर्व प्रकार के जहां भटकाव प्रीति और अमीनि है भोग करता हुआ स्वच्छन्द फिरता रहे समको भक्ति क्यों कर कह सकते हैं और किमी प्रकारका मटकाया किमी . पाठकगण ! इस लेख का अभिप्राय काम में रोक टोक व माने और जो। या कि जैनी लोग पैंतालीम लाख चाई सो करै । योजन का एक स्थान मानते हैं जिस पाठकगण ! जिस प्रकार बाजारी रं. में मक्तजीव राने हैं स्वामीजी इसके डिये ग्रह त्यानी स्वभार संतुष्टाशियों विरुद्ध पा सिखाना चाहते हैं कि मुक्त पर हमा करती हैं कि हम स्वछन्द | जीव सर्व ब्रह्मागहमें घूमना फिरता र- और विवाहिता बिये बंधन में | हमारेमकारया स्वामीजी जैनियों मी हुई कारागारका दुःख भोगती के सिद्धान्तकी हमी अहाते हैं कि यदि | था जिस प्रकार शराबी कबाबी लोग भक्ति जीव मक्ति लोकसे बाहर चला स्पागियों की हंसी उडाया करते हैं। जाता होगा तो उसकी मुक्ति छुट जाती। |कि यह त्यागी लोग संभारका कुछ भी। होगी और मुक्ति स्थान में ही रहते स्वाद न ले सकेंगे इस ही प्रकार स्वामी। यो समको मुक्ति स्थानमे प्रीति और दयानन्दजी भी शुद्ध निर्मल स्वभावमें क्ति स्थान से बाहर जो लोक है उस स्थित उन मुक्त जीवोंकी हंसी उड़ाते | -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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