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________________ ११८ मार्यमतलीला ॥ रागार नहीं है-जेलखाना नहीं है जि- भार में फिर रूलना पड़ेगा और दुःख ससे छटमा जरूरी हो बरण मुक्ति तो| सागर में इबना होगा, मुक्त जीवोंको ऐसा परमानन्दका स्थान है कि वह जितना क्लेश हो मकता है उसका बमानन्द संमारमें प्राप्त ही नहीं हो स- गन जिहासे नहीं हो सकता है और कता है। परन्तु स्वामी दयानन्द स. उनकी दशाको परमानन्द की दशा करस्वतीने मुक्तिको अनित्य वर्णन करके ना तो क्या मामान्य मानंदकी भी और मुक्तिसे लौटकर फिर संमारके ब-दशा नहीं कह सकते हैं। इस हेतु मु. म्धनमें पड़ने को प्रावश्यक स्थापित क *वितसे लौटकर संमारमें पाने के सिद्धारके मुक्तिके परमानन्दको पाल में मिला न्त को मानकर मुक्निका सर्व वर्णन ही दिया। क्योंकि प्रियपाठका ! पाप जा. नते हैं कि यदि हम किमी मनुष्यको | नष्ट भष्ट होता है और सर्व कथन मिकहंदखें कि तुझको राजा बंद करदेगा स्या हो जाता है। वा अन्य कोई महान् विपत्ति तुझ पर __ आर्यमत लीला। माने वाली है और उसको इस बात का निश्चय वा मंदेड तफ भी होजाये। तोकेदमें जाने वा अन्य विपत्तिके प्राने स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी को संसे जो क्लेश होगा, उमसे अधिक कनेश मारके विषय भोगोंका इतना प्रेम है उप मनष्य को अभीमे प्राप्त हो जायेगा कि वह मंमारके विषयों को भोगनेके और याद वह इस समय प्रानन्द में भी वास्ते मुक्त जीवों का भी मुक्तिसे वापिस था तो मका यह मानन्द सघ मिट्टी पाना शावश्यक ममझते हैं और इम में मिल जावेगा । इम ही प्रकार यदिही पर यम नहीं करते बरगा वह मिद्ध • मुक्तिसे नीट कर मंमार के बन्धन में फं। करना चहते हैं कि जितने दिन जीव मना मुक्ति जीवोंके भाग्य में आवश्यक | मुक्ति में रहता है तन दिनों में भी मुक्ति है तो यह बात मुक्ति नीयों को प्रय | जीव इलामे बंधन नहीं रहता है श्य मालम होगी क्योंकि स्वामी दया. | वरण मुक्त दशा में भी स्वेच्छानुसार मनजीने स्वपम् मत्यार्थप्रकाशमें मिल | सर्व ब्रह्मांड में विचरता रहता है और किया है कि मुक्ति जीव परमेश्वरके म जगह २ का स्वाद मेता रहता है यदि दृश होगाते हैं और उनका संसारियों की तरह स्थल गरीर नहीं होता है। कोई ऐमा कहै कि मुक्ति में जीव इच्छा और न इन्द्रियोंका भोग रहता है ब द्वेष मे रहित रहता है तो स्वामीजी |. 'रण वह अपने ज्ञानसे हो परमानन्द को बहुत बुरा मालूम होता है और भोगते हैं। यह मालूम होने पर तुरंत उसके खबहन पर तय्यार होते हैं 'हमको यह परम प्रानन्द खोडकर सं. स्वामीजीको तो संसार के ममयों को
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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