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________________ प्रार्थमतलीला ॥ देता होगा तो स्वच्छन्दता न रही दूसरे के कारण से अलहदा हटना पड़ा संसार बंधन में जो दुःख है वह यह ही तो है कि संसार के अन्य जीवों और अन्य वस्तुओं के कारण अपनी कानुकूल नहीं प्रवर्त सकते हैं । हम को बड़ा है कि जब स्वयम् स्वामी जी यह लिखते हैं कि मुक्ति का बाधन रागद्वे षका दूर करना और अपनी आत्मा में स्वरूप स्थिर होना है इन दो माधन से जीवात्मा शुद्ध और निर्मन होता है और इस ही से नमकी उपाधि दूर होती हैं। तत्र नहीं मालन स्वामी दयानन्द की मम में मुक्ति की प्राप्त करने के पवात् जीवात्मा में कौन सी उपाधि मिट जाती है जिनके कारण वह अमी स्वरूपस्थित स्थिर अवस्था को कोकर मारे ह्मांड की सैर करता फिरने लगता है ? देखिये मुक्ति के स्वामी जी इस प्र [ तथा धारण के पीछे ठमी देश में ध्यान करने और आश्रय लेनेके योग्य जो अंतर्यामी व्यापक परमेश्वर है उम के प्रकाश और आनन्द में अत्यंत वि चार प्रौर प्रेम भक्ति के माथ इस प्रकार प्रवेश करना कि जैमे ममुद्र के बीच में नदी प्रवेश करनी है । ऋग्वदादि भाष्यभूमिका पृष्ठ १८६ ध्यान और समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला जिस मनमे जिम चीजका ध्यान में माधन स्वयम् कार लिखते हैं ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका पृष्ठ १८३ "जी ary बाहर से भीतर को प्राता है उसको श्याम और जो भीतर से बा १६५ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका पृष्ठ ११९ "इसी प्रकार बारंबार अभ्यास करने से प्राण उपासक के वश में होजाता है और प्राण के स्थिर होनेसे मन, मम के स्थिर होनेसे मारना भी स्थिर हो जाता है।" ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ १८५ 6. "धारणा उनको कहते हैं कि मनको चंचलता से छुड़ा के नाभि, हृदय मस्तक, नामिका और जीभ के अग्रभाग प्रादि देशों में स्थिर करके प्रकारका अप और उनका अर्थ जो परमेश्वर है उसका विचार करना I 35 हर जाता है उस की प्रश्वास कहते हैं उन दोनों के जाने जाने को बिचार | से रोके नासिका को हाथ से कभी न पकड़े किन्तु ज्ञान से ही उनके रोकने को प्राणायाम कहते हैं इनका - नुष्ठान इस लिये है कि जिनसे घिस | तो स्वामी जीने उपर्युक्त लेखक्रे छानुनिर्मल होकर उपासना में स्थिर रहे, सार यह बताया कि ध्यान करने वा करता है वे तीनों विद्यमान रहते हैं | परन्तु समाधि में केवल परमेश्वर ही के आनन्द स्वरूप ज्ञान में ग्रात्मा मग्न हो जाता है वहां तीनों का भेद भाव नहीं रहता । प्यारे पाठको ! मुक्ति के साधन में
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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