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________________ ११४ भार्यमत्तलीला ॥ बावाला बनना पमन्द किया है। दे. यदि ईश्वर जगत् का है और वृक्षमी खिये स्वामीजी सत्यार्थ प्रकाश मुक्ति वही पैदा करता है नो या स्वामी से लौटकर फिर संसार में आने की जी का यह अभिप्राय है कि होटे से : भावश्यकता को मिद्ध करने के वास्ते बीज से बहा भारी पक्ष बना देने में पष्ठ २४१ पर लिखते हैं चर अन्याय करता है? यदि कोई “और जो ईबर अन्त वाले कमौका किसी को एक पप्पड़ मार दे तो राअनन्त फल देखें तो उसका म्याय नष्ट | जा उसको बहुत दिनों का कारागार हो जाय" का दंड देता है। क्या स्वामी जी के प्यारे भाइयो ! क्या एम से यह हेत के अनमार राजा बम प्रकार दंड | स्पष्ट बिदित नहीं होता कि स्वामी । देमे में अन्याय करता है और एक जी मुक्ति प्राप्ति को भी कमों का फम्म.. | पप्पड़ मारने का दंड एक को थप्पड़ समझते हैं ? अर्थात जिस प्रकार जीव होना चाहिये क्या जितने दिनों तक के कर्मों से मनुष्य, पशु पक्षी, प्रादिको जीवकोई कर्म उपार्जन कर नम कर्म पर्याय मिलती है उमही प्रकार मुक्ति का फन भी उतने ही दिनोंके वास्ते भी एक पर्याय है जो जीयके कर्मों के मिलना चाहिये ? और धैमा हो भि. अनुसार ईश्वर देता है लना चाहिये अर्थात् कोई किमी को प्यारे भाइयो ! यदि मापने पूर्वा- गाली दे तो गाली मिले और गोजन चार्यों के ग्रन्थ पढे होंगे तो आप को दे तो भोजन मिले यदि ऐमा है तो मालम हो जायेगा कि मुक्ति कमौका भी स्वामी जी को समझना चाहिये फम नहीं है घर म कमोमे गहन हो- पा किकमों का फन मति कदाचित कर जीव का स्वच्छ और शुद्ध होना भी नहीं हो सकता है क्योंकि कोई ना है अर्थात् मर्ष उपाधियां दूर ही-भी कम ऐमा नहीं हो मकता है जो कर जीव का निज खभाव प्रगट होमा | मक्ति के ममान हो क्योंकि कर्म सं. है म बात को हम भागामी गिद्ध मार में किये जाते हैं और घंध अवस्था करेंगे। परन्तु प्रथम सो हम यह पृछ- में किये जाते हैं और मुक्ति संमार ते हैं कि यह मानकर भी कि मुक्ति और बंध दोनों मे यिनक्षम है। भी कर्मों का ही फग्न है क्या स्वामीजी प्यारे प्रार्य मारयो ! मुक्ति के स्व. का पद हेतु ठीक है कि अंत वाले रुप को जानने की कोशिश करो। काँका मानना फन नहीं सिम मकना प्राचार्यों के लेखों को देखो और तर्क है? क्या खग पण के दाने के ममान बितक मे परीक्षा करो। मुक्ति को एक छोटे से बीज मे बड़ का बहुत का फल कदापि नहीं हो सकती है बहा वृक्ष नहीं बन जाता है और बग्गा कर्मों के क्षय होने तथा जीवका -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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