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________________ पार्यमतलीला ॥ शुद्ध स्वभाव प्राप्त करने का नाम मुक्ति | ता है कि कमौके क्षय होने और जीव है। इस भय से कि स्वामी दयानन्द | के शुद्ध स्वरुछ और निर्मल हो जाने | के वचनों में प्रासक्त होकर भाप ह-|का ही नाम मुक्ति है। मारे हेतों और प्राचार्यों के प्रमाणों ऋग्वेदादि भाष्य भमिका के अपरके को शायद म सुने हम इस विषय की लेख से यह भी विदिन होता है कि पष्टि स्वामी दयानन्द के ही लेखों से मुक्ति नित्य के वास्ते है अनित्य नहीं करते हैं है। बेशक जब कि सर्व उपाधि दूर प्राग्वेदादि भाष्य भूमिका पृष्ठ १९२ होकर अर्थात कर्मों का सर्वथा नाश "कवल्य मोक्ष का लक्षण यह है कि होकर जी के शुद्ध निज स्वभाव के | ( पुरुषार्थ ) अर्थात् कारण के मत्व, प्रगट होने का नाम मुक्ति है तो यह रजी और तमो नण और उन के सब सम्भव ही नहीं हो सकता है कि जीव कार्य पुरुषार्थ मे नष्ट होकर प्रात्मा में मुक्ति में लीटकर फिर संसार में भाव विज्ञान और शद्धि यथावत् होके स्व- क्योंकि मंमार को दुःख मागर और अप प्रतिष्ठा जैसा जीयका सत्व है वमा मुक्ति को परम आनंद घार २ कई it स्वभाविक शक्ति और गुणों से युक्त स्थान में स्वयम् स्वामी दयानंद जोमे | होके शुद्ध स्वरूप परमेश्वर के स्वरूप भी लिखा है। इस कारक मुक्ति जीव बिज्ञान प्रकाश और नित्य आनन्ध में अपने साप तो मुक्ति के परनानंदको जा रहमा है उमी को कैवल्य मोक्ष खोहकर संमार के दुः५ में फंमना पसं. करने हैं" |द कर ही नहीं सकता है सौर किमी पारे पाटको ! पर्यत नेस्व के प्र. प्रकार भी मंमार में माही नहीं सक्ता नुमार मुक्ति पार्मों का पान है या कों है और यदि ईश्वर जगत्का कर्ता हो के मर्वथा नष्ट होने से मुक्ति प्रेमी है तो वह भी ऐमा अन्याई और अपं. जख मन्व, रज और तम तीनों उपा-राधी नहीं हो सकता है कि शुद्ध, निधिक गुण और उनके कार्य नष्ट होगये मल और उपाधि रहित मुक्ति जीवको और जाव शुद्ध यथावत् जेसा जीव का बिना किसी कारगम, विना उसके कितत्व है वेमा ही स्वभाविक शक्ति और सी प्रकार के अपराध के परमानन्द गण माहिस रहगया तो क्या फिर भी रूप मुक्तिस्थान मे धक्का देकर दुःख जीव के साथ कोई फर्म वाकी रहगये? दाई संमार कप में गिरादे और मुक्त . ग्वेदादि भाष्प भूमिका में इस प्र- जोव को स्वच्छता ओर शुद्धता को कार जो मुक्ति का लक्षणा वर्णन किया नष्ट भष्ट करके सत, रज, और तम प्रा. . है मसे तो किंचित् मात्र भी मंदेह दि उपाधिय उम के साथ चिमटादे । नहीं रहता है बरगा स्पष्ट विदित हो- ऐमा कठोर हृदय तो मित्राय म्वामी
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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