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श्रार्यमतलीला ॥
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फिर जन्म लेना चाहिये इन ही प्रकार | और कभी झूठ ! इन कारण
विवाहिता स्त्रीको भी चाहिये कि वह निज भरतारकी छोड़कर वंश्या वनकर अनेक पुरुषोंसे रमण करे - ?
क्यों स्वामीजी ! ब्रह्म अर्थात् परमे श्वर भी तो एकड़ी स्वरूप है जब जी बाक्साको मुक्तिदशा में ब्रह्मके गुण कर्म स्वभाव के सदृश होकर एक स्वरूप में रहनेसे उतना सुख प्राप्त नहीं हो सकता जितना संसारमें जन्म लेकर इन्द्रियोंके अनेक विषय भोगों के भोगने से होता है। तो अवश्य आपके कथनानुसार ईश्वर तो घावश्य दुख र हता होगा और संभारी जीवोंकी नाई अनेक जन्म लेकर संसारकी सर्वप्रकार की अवस्था भोगनेकी इच्छा में तड़कना रहना होगा कि मैं भी जीव क्यों न हो गया जो संमारके सर्वप्रकार के रस चखता?
अवश्य घोलना चाहियेधर्मात्मा पुण्यवान् जीवोंको जय हो पूर्णसुख मिलता होगा जब वह साथ २ पाप भी करते रहें। मनुष्य जन्म पाकर धर्मात्मा बनना और इस बातका यत्र करना मूर्खता होगा कि श्रागामी की भी मैं मनुष्य जन्म ही लेता हूं बर आपने तो मनुष्य जन्मके सुख से उकताकर इस ही प्रातकी कोशिश की होगी कि आगामीका मनुष्यजन्म प्राप्त महोबरा कीड़ो मकोका कुत्ता विज्ञो प्रादिक अनेक सर्व प्रकार के जन्मोंके भोग भोगने को मिलें ? ॥
स्वामी जी आप मुक्ति के माधन के वास्ते स्वयम् लिखते हैं कि. "बाह्य विषयोंसे इन्द्रियों को रोक अपने खात्मा छोर परमात्माका विवेचन करके परमात्मा में मम हो संयमी हावें, जिस पहले यह लिखकर भी कि " मुक्ति से स्पष्ट विदित है कि इच्छा और द्वेष में जीव ब्रह्म में रहता है और ब्रह्मके । से रहित होने से ही मुक्ति होती है
सदू उसके गुया कर्म स्वभाव होजाते हैं, " जितना जितना इच्छा द्वेष दूर होता मुक्ति जीवको संसार में लानेकी श्राव जावंगा उतना ही अन्तःकरण निर्म श्यकता की मिट्ट करने में स्वामी जी! होता जायगा अन्तःकरण की ही सफाई आपको यह दृष्टान्त देते हुए कुछ भी को धर्म कहते हैं इस ही के अनेक सा लज्जानाई कि एक मोठा मीठा ही धन ऋषियोंने वर्शन किये हैं और इखाते हुए को उतना सुख नहीं होता है। कहा द्वेषक ही सर्वथा छूटजानेका नाम जितना मवरसोंके चखने वालेको होता मुक्ति है परन्तु फिर मा छाप जीजाहै । क्यों स्वामी जी आपके कथनात्माको इतना अधिक विषयानक व नमार तो मत्य ही बोलने वालेको ख- नाना चाहते हैं कि मुक्तिसे भी लोट तना सुख नहीं होता होगा जितना उम | खानेका लालच दिलाते हैं और कहते को होता होगा जो कभी मत्य बोले हैं कि एक स्वरूपमें रहने से मानद नहीं
झूठ भी
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