SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नार्यमतमीला ॥ १०५ / मिनेगा वरगा मुक्तिसेनीटयर और मं- , जो गरीर रहित मुक्ति जीवात्मा प्रता मार में भ्रमण कर समार के मर्व विषय में रहता है उसको ममारिक सुग्न दुःख भोगौमे ही प्रानन्द मावैगा ! का स्पर्श भी नहीं होता किन्तु सदा प्यारे आर्य भाइयो ! काा उपरोआनन्दमें रहता है" फिर यह निखना स्वामीजीके मिद्धान्त ने मत्यधमाका नाश कि परमेश्वर फिर जीवात्माको मुक्तिसे | और अधर्मकी प्रवृत्ति नहीं होती है ? लौटाकर मंसारमें भमाना है परमेश्वर अवश्य होती है क्योंकि धर्म बदही को माक्षात अन्याई बनाना है-जीहोमकता है जो जीवको रागद्वे एक कम-वाला ने तो अपने आप को निर्मल करने या दूर करनेकी विधि ताव औरोर पवित्र कर के मुक्ति में पहुंचाया अधर्म यही है जो राग में फंमा यहां तक कि उसको स्थान भी ब्रह्ममें वाममार्ग इन ही कारण तो निन्दनीय हो याम करने का मिल्दा परन्त स्वा. है कि वह विषयाशक्त बनाता है-इम मीजीक कथनानुसार ब्रह्मो फिर उम ही हेतु जो सिद्धान्त रागय और संकी निर्मननाको विगाता और मंमार सारके विषयभोगको प्रेग्गार कर व: अ.के पापों में कमाने के बास्ते मझिसे बावश्य निन्दनीय होना चाहिये ॥ हर निकाला स्वामी दपानन्द मरस्वती जी अपने | स्वामीजी ! यदि आपको यह मिद्ध नवीन सिद्धान्तको सिद्ध करने के बाम्ते करना था कि जीवात्मामें मुक्ति प्राप्त यह भी भय दिखाते हैं कि जो ई-करने की शक्ति ही नहीं है-पाप की श्वर अन्त वाले काँका अनन्त फल दवे | अद्भन ममझके अन्दुमार यदि उसका तो उमका न्याय नष्ट हो जाय. जो जि-निर्मल होना उम पर अधिक यमनानमा भार ठाम उतना तुम पर घटना है तो समापने यह क्यों लिग्बा कि रना बद्धिमानोंका काम है जने एकमन "जीवात्माके गण कर्न स्वगाव ईश्वर के भार उठाने वाले के शिर पर दश मनग कम स्वभावके अनमार पवित्र हो धरने ने भार धरने वाले को निन्दा होगीआने हैं और वह मदा मानन्दमें रहता है वै अल्पज्ञ प्रय मामय वाले जी है"-मापको की यह ही लिखना था पर अनन्त सुखका भार धरना ईश्वरके । कि जीवात्मा कभी इन्द्रियों के विषय | लिये ठीक नहीं"..-- | भोग में विरक्त हो ही नहीं मनाता है। पारे पाठको ! इस हेतमे भी स्वामी बरगा पदा मंगार के ही मजे उड़ाता जीकी बद्धिमानी टपकता है क्योंकि रहता है - परन्न् स्वामी जी क्या करें प्रया पर निकाले गत ! ऋषियों ने तो मब गन्धों में यह ही क स्वमा के पदा जव म के गाजिव दिया कि जीवात्मा रागढष मे रकर्म स्व व पवित्र हो जाते हैं और हिन होकर स्वच्छ और निर्मल हो । १४
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy