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________________ सार्यमनलीला ॥ १०३ देखिये हम बात के सिद्ध करने में कि मालम पड़ता है कि स्वामीजीको छमुक्तिसे लौटकर फिर जोध संसार के बं-न्द्रियों के विषयको अत्यन्त नोलपता पी! धनमें भाता हैस्वामीजी मत्यार्थप्रका- | और विषय भोगको ही वह परम सुख शके पाठ २४०-४१ पर लिखते हैं:- | मानते थे तबही तो वह मुक्ति मुसके ___“दुःखके अनभवके बिना सुख कह | निषेधमें लिखते हैं कि "कि जसे कोई भी नहीं हो सकता जमे कट नही तो मनुष्य मीठा मधर ही खाता पीसा मधुर क्या जो मधुर नहो तो कटु क्या | जाय उसको नैमा मुख नहीं होता जैमा महाव? क्योंकि एक स्वादक एकरके मन प्रकार के रमों को भोगने घालेको विरुद्ध होनेसे दोनों की परीक्षा होती है। होता है ,-वाह ! स्वामी जी चाह !! जमे कोई मनप्य मधर ही खाता पीता धन्य है आपको : वंशक मुक्ति के स्वरूप जाय ममको वैमा सुख नहीं होता जैसा को मापक मिवाय और कौन समझ मब प्रकार के रमाको भोगने धानोंको मकता है ? इस प्रकार मुक्तिका स्वरूप न किमी ने समझा और न मागेको कोई होता है-और जो इंवर अन्त धाले कमौका अनन्त फन देव तो उमका न्याय ममझगा : क्यों जी ! मुक्तिको प्राप्त होमष्ट हो जाये जो जितना भार उठासके कर और ईश्वरसदृश गुण, कर्म, उतना उम पर धरना अद्विमानोंका | स्वभाव धारण कर जीवात्मा को काम है जेमा एक मनभर उठाने वाले | मुक्तिका मानन्द भोगते २ अकता कामा के शिर पर दशमन धरनेसे भार धरने | चाहिये और सामारिक विषय भोगों वाले की निम्मा होती है। वैसे अस्पात के वास्ते मंमार में फंसना चाहिये? सरप सामर्य वाले जी य पर अनन्त सुख | वाह स्वामीजी ! क्या कहने हैं श्रापकी का भार घरना ईश्वर के निये ठीक नहीं" बद्धिके ! भापका तो अवश्य यह भी पाठकगस !या उपरोक्त लेखको प-मिद्धान्त होगा कि जिम प्रकार एक मीठा ढकर यही कहना नहीं पड़ेगा कि ही खाता हुमा मनुष्य उतना सुख प्राप्त पा तो स्वामी दयानन्दजी निरे मूर्ख घे नहीं कर सकता है जिसना सर्वप्रकारके और मुक्ति विषयको कुछ भी समझ नहीं | रमोंको भोगने वालेको होता है। इस सकते थे, अपवा जान बझकर उन्होंने ही प्रकार एक पुरुषले मन्तष्ट मियाउलटी अधर्मकी बातें सिखानेकी को-हिता स्त्री को इतना सुख प्राप्त नहीं शिश की है-हमारी समझमें तो ना-होता है जिसना वेश्याओं को होता है दाम यालक भी ऐमी उलटी बातें न जो अनेक पुरुषों से रमण करती हैं और करेंने ऐमी उलटी पुलटी बातें तो बा- आपका तो शायद यह ही उपदेश होगा बता की किया करता है जिसके दिमा- कि जिस प्रकार इन्द्रियोंके नाना भोग ग़में फरक भागया हो भोगनेके वास्ते मुक्त जीवको संसार में
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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