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गृहस्थ सामान्य धर्म : ४७
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"माता पिता कलाचार्यः एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः ॥२६॥ - संतजन, मातापिता, कला सिखानेवाला आचार्य, उनकी ज्ञाति (संबंधी) वृद्धजन तथा धर्मके उपदेशक - इन सबको गुरुवर्ग मानते है। इन गुरुजनोका --
"अभ्युत्थानादियोगश्च तदन्ते निभृतासनम् । नामग्रहश्च नास्थाने, नावर्णश्रवणं कचित्" ॥२७॥
- उनके आने पर खड़े होना, सामने जाना, आसन देना व सुखशातादि पूछना, तथा उनको प्रसन्न करके अन्य कार्य करना चाहिए | उनके पास निश्चल होकर बैठना चाहिए। अयोग्य स्थल पर उनका नाम नहीं लेना तथा उनकी निंदा न करना, न सुनना ही चाहिए। ( मंत्र व देव आदिकी तरह गुरुजनोंको भी पवित्र -समझना चाहिए ) । हो सके तो निंदकको रोकना भी चाहिए । इस बाह्य विनयके साथ हार्दिक बहुमान भी रखें।
माता पिता आदिका अन्य विशेष रखनेके बारेमें कहते है-आमुष्मिक योगकारणं तदनुज्ञया प्रवृत्तिः प्रधानाभिनवोपनयनं तद्भोगेऽप्यत्र तदनुचितादिति ||३२||
मूलार्थ - माता पिताको धर्मकी प्रेरणा करना, उनकी आज्ञासे प्रवृत्ति करना तथा उनके अयोग्य वस्तुको छोड कर प्रत्येक नइ व श्रेष्ठ वस्तु उनको भेट करके भोगमें लाना चाहिए ||३२||