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________________ ४६ : धर्मविन्दु करनेसे गुणवृद्धि नहीं होती। इसलिये यह सूत्र कहा है । अतः सदाचारी व समानधर्मीका संग व गोष्ठी करो। कहा है कि... "यदि सत्सद्भनिरतो, भविष्यसि भविष्यसि । अथासजनगोष्ठीषु, पतिप्यसि पतिष्यसि" ॥२४॥ -यदि सत्संग किया तो ऐश्वर्यवान वनोंगे व दुष्ट संगतिमें पडे तो पतित होकर कष्ट पाओगे। अत सत्सङ्ग करो। तथा-माता-पितृपूजेति ॥३१॥ मलार्थ-माता पिताकी पूजा करनी चाहिए। विवेचन-अपने मातापिताको त्रिकाल प्रणाम आदि करके भक्ति करना चाहिए। श्रीरामचन्द्रजीका पितृभक्तिका अपूर्व उदाहरण है। पूजन विधि के लिये कहा है "पूजनं चास्य विज्ञेयं, त्रिसन्ध्यं नमनक्रिया। तस्यावसरेऽप्युच्चैश्चेतस्यारोपितस्य तु" ॥२५॥ -प्रात', मध्याह व सन्ध्या तीनो समय मातापिता आदि पूज्य वर्गको नमस्कार करनेको उनका पूजन कहते हैं। यदि अवसर न मिले तो उनका स्मरण करके जोरसे उच्चारणपूर्वक नमस्कार करे। बाहर आते जाते भी प्रणाम करे। माता पिताके प्रति कटुवचन नहीं कहना व आज्ञाका उल्लवन नहीं करना चाहिए। 'ठाणांगसूत्र में लिखा है कि, मातापिताको प्रसन्न करनेके लिये कोई भी कार्य करे तो भी उनके उपकारका बदला नहीं चुकाया जा सकता। उनको धर्मरत्नकी प्राप्ति करानेसे ही उपकारका बदला हो सकता है। गुरुवर्गमें ये हैं---
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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