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________________ vNvM ४१४ : धर्मविन्दु मृत्यु समय समीप जानकर वह यति संलेखना करता है उसे आराधना कहते हैं। तत्र च-विधिवच्छरीरत्याग इति ॥१६॥ (४५९) मूलार्थ-तब विधिवत् शरीरका त्याग करता है ।।१६।। विवेचन-शास्त्रीय विधिके अनुसार उसे प्रधान समझकर शरीरका त्याग उसी प्रकार करता है जिस प्रकार अनशन आदि क्रियासे संलेखना करके शास्त्रविधिसे अपने शरीरका त्याग करता है । ' . ततो विशिष्टनरं देवस्थानमिति ॥१७॥(४६०) मलार्थ-फिर अधिक उत्तम देवस्थानकी प्राप्ति होती विवेचन-विशिष्टतरं-पहले प्राप्त हुए देवस्थानकी अपेक्षा अधिक सुंदर, स्थान-विमान वास । - पहले जो उसे देवताका स्थान मिला हो उससे अधिक उत्तम प्रकारका देवस्थान प्राप्त करता है और वहां वह विमानमें वास करता है। ततः सर्वमेव शुभतरं तत्रेति ॥१८॥ (४६१) .. मूलार्थ और वहां अतिशय शुभ सब वस्तुएं मिलती हैं । विवेचन-पहले जिस देवस्थितिका वर्णन किया है वहां जैसे रूप संपत्ति आदि वस्तुए मिली थी उससे इस समय अधिक उत्तम प्रकारकी सब वस्तुएं प्राप्त करता है। . परं गतिशरीरादिहीनमिति ॥१९॥ (४६२)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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