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________________ धर्मफल देशना विधि : ४१३ है और समय आने पर विषयकी असारताका अनुभव होनेसे विरक्ति होकर सब सावध व्यापारके न्यागन्य साधुधर्मको अंगीकार करता है। तत्र च-गुरुसहायसंपदिति ॥१३॥ (४५६) मूलार्थ-उसमें भी गुरुकी सहायतारूप संपत्ति मिलती है। - विवेचन-दीक्षा अंगीकार करनेके समय योग्य गुरु मिलता है उसेसे दीक्षाके परिणाम वृद्धि पाते हैं और गुरुकी सहायतास दीक्षामार्गमें वह आगे बढता है । इस प्रकार पुण्यवान जीव सर्वत्र सुखी होता है। सर्व दोषरहित गुरुगच्छकी संपत्ति मिलती है। ततश्च साधुसंयमानुष्ठानमिति ॥१४॥ (४५७) मृलार्थ-उससे अच्छी तरह संयमका पालन होता है ॥१४॥ विवेचन-साधु- सब अतिचार छोडनेसे शुद्ध, संयमस्यप्राणातिपात आदि पापस्थान विरमणल्पका-पंच महाव्रतधारी, अनुष्ठान-संयमका पालन । अतिचार न लगे वैसा शुद्ध संयमका वह पालन करता है। पांचों महातका पालन करता है। और शुद्ध संयमका पालन करता है। ततोऽपि परिशुद्धाराधनेति ॥१५॥ (४५८) मूलार्थ-उसके बाद परिशुद्ध आराधना करता है ॥१५॥ विवेचन-परिशुद्धा-निर्मल-मल रहित, आराधना-जीवनके अंत तक संलेखना करना । इस प्रकार शुद्ध और अतिचार रहित संयम पालनेके बाद
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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