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________________ ३५० : धर्मविन्दु विवेचन-धर्मकथारूप देशना या व्याख्यान देनेमें धर्मको सुननेवाले उस प्रकारके लोगोंके उपस्थित होने पर भी बहुत भाव न रखे। बहुत आग्रह करे तो 'एगवयणं दुवयणं'--एक या दो वचन कहे-ऐसा शास्त्रका प्रमाण है । निरपेक्ष मुनि अधिकांश कायोत्सर्गमें रहता है। कभी कोई धर्म सुनने आवे तो उसे सारभूत शास्त्रके एक दो वचन कहे-यही भाव है। तथा-सदाऽमसन्ततेति ॥९७॥ (३६२) मूलार्थ-और निरंतर प्रमाद रहित रहे ।।९७॥ विवेचन-निरंतर मन तथा इद्रियोको स्वाधीन रखे। पांचों प्रकारके प्रमादका त्याग करे। दिवस या रात्रिमें जरा भी प्रमाद न करे। निद्रा आदिका त्याग करे। प्रतिक्षण सावधान रहे । तथा-ध्यानकतानत्वमिनि ॥९८॥ (३६६), भूलार्थ-और ध्यानमें एकाग्रता रखे ।।९८॥ विवेचन-धर्मध्यानमें मनको तल्लीन रखे। मनको भटकने न दे, पर धर्मध्यान व स्वाध्यायमें तल्लीन रहे और- चित्त एकाग्र रखे। इति शब्द समाप्त्यर्थक है। ___ अब उपसंहार करते हुए कहते हैंसम्यग्यतित्वमाराध्य, महात्मानो यथोदितम् । संमाप्नुवन्ति कल्याणमिहलोके परत्र च ॥२८॥ अर्थ-महात्मा लोग उपरोक्त यतिधर्मको द्रव्य व भावसे सम्यक् प्रकारसे. आराधन करके इस लोक तथा परलोकमे कल्याणको प्राप्त
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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