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यतिधर्म देशना विधि. : ३३९ क्या कर्तव्य है, अन्य प्राणियोंसे क्या संबध आदि प्रश्नों पर विचार करते रहने से मनुष्य अपने दोपोको हठाता तथा शुभ कर्मोको करता है व करनेको प्रेरित होता है । इस प्रकार साधु व श्रावक सोचें ।
उचितप्रतिपत्तिरिति ।[७२।। (३४०) मूलार्थ-योग्य अनुष्ठान अंगीकार करे ॥७२॥
विवेचन-डम प्रकार आत्मनिरीक्षण करके जो अनुष्ठान योग्य लगे ऐसे शुग अनुष्ठान करे । गुणकी वृद्धि करनेवाला, प्रमादको हठानेवाला-ऐसा उचित कार्य करे।
नथा-प्रतिपक्षासेवनमिति ॥७३॥ (३४१) मूलार्थ-और दोपोंके शत्रुरूर युगोंका सेवन करे ॥७३॥
विवेचन-जैसे हिमपातसे तकलीफ पाया हुआ प्राणी अग्निका उपयोग करे वैसे ही जब भी किसी पुरुषमें कोई भी ढोष उत्पन्न हो तब वह उस दोपके शत्रुबस गुणका सेवन करें। जैसे क्रोधके लिये क्षमा, द्वेषके लिये प्रेम-इसी प्रकार सब दोषोंका समझना । अत' दुर्गुण त्यागके लिये उसका विरोधी गुण ग्रहण करना चाहिये।
तथा-आज्ञाऽनुस्मृतिरिति ॥७४॥ (३४२) मूलार्थ-और भगवानको आज्ञाका स्मरण रखे. ॥७४॥.
विवेचन-भगवानके वचनोको हर समय अपने हृदयमें स्मरण, रखे । भगवानके वचनका स्मरण भगवानके स्मरणके समान है अतः भगवानके स्मरणका महान् लाभ होता है। कहा है कि