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________________ ३३८ : धर्मविन्दु नथा-धर्मोत्तरो योग इति ||७७।। (३३८) मूलाथ-मन, वचन व कायासे ऐसा काम करे जिसका फल धर्म हो ||७७॥ विवेचन-मन, वचन व कायासे सब ऐसे ही काम करने चाहिये जिनसे धर्मकी प्राप्ति हो । अतः मनसे शुभ विचार, शांति व ज्ञानको देनेवाले शब्दोंका उच्चार और दुःख दूर करने या किसीको हानि न पहुंचानेका कायिक व्यापार या कार्य करे। ऐसे विचार, वचन या कार्य न करे जिनका फल पाप हो, जैसे-जोरसे हंसना, कुवचन बोलना, खराब विचार करना आदि कर्म न करे । तथा-आत्मानुप्रेक्षेति ॥७१।। (३३९) मूलार्थ-और-आत्माका विचार करे ७१॥ विवेचन-साधु प्रतिक्षण आत्मनिरीक्षण करें। अपने आपकी, अपने मनके ऊठते हुए भावोकी तथा कार्योंकी आलोचना स्वयं करे। जैसे 'किं कयं कि या सेले, किं करणिज्ज तवं न करेमि । पुवावरत्तकाले, जागरओ भावपडिलेह त्ति ॥१९०॥ ~मैंने क्या किया, क्या करना बाकी है, और करने योग्य कौनसा तप मै नहीं करता हूं-इस प्रकार प्रातःकालमें ऊठ कर भाव पडिलेहण करे । अर्थात् सवेरे जब रात्रिके अतिम भागमें जागे तब इस प्रकार अपने भावोंका विश्लेषण करे। इस प्रकार प्रति समय आत्मनिरीक्षण करनेसे या मैं कौन हूं, कहांसे आया, - क्या धर्म है,
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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