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________________ यति सामान्य देशना विधि : २८७ पुरुष आमन्न भव्य है। अन्य स्वजन लोगोंका उपकार करने लायक है । यह सत्पुरुपका धर्म है । यहा अकुशलानुबंधी माता - पितादिके शोकको त्याग करनेवाले श्रीमहावीर हां हैं । तथा - गुरुनिवेदनमिति ||३२|| (२५८) मूलार्थ - दीक्षा लेनेवाला गुरुसे सर्व बातों का निवेदन करे | विवेचन- गुरुनिवेदनं - सर्व आत्मासे गुरुके सामने आत्मसमर्पण करे | दीक्षा लेनेवाला गुरुके स'मने आकर अपना आत्मसमर्पण करे तथा सब वातोंका निवेदन करे । गुरुको ही सर्वस्व समझे । गुरुकी आज्ञा का पालन करे | यह दीक्षार्थी के बारे में विधि कही अव गुरुके वारे में विधि कहते हैंअनुग्रहधियाऽभ्युपगम इति ||३३|| (२५९) मूलार्थ - अनुग्रह बुद्धिसे शिष्यका स्वीकार करे ||३३|| विवेचन - अनुग्रहविया - गुरुद्वारा अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे - सम्यक्त्व आदि गुणोंके आरोपण करनेकी बुद्धिसे, अभ्युपगमः - साधु चनाने आदिके रूपमें अंगीकार करे । गुरु शिष्य पर अनुग्रह करनेकी बुद्धिसे सम्यक्त्व आदि गुणोंको देनेकी वृद्धिसे उसे गियरूपमें साधु बनाकर अंगीकार करे। अपनी पर्षदा (संघाडा ) की वृद्धि करनेकी बुद्धिसे शिष्य न करे । नथा-निमित्त परीक्षेति ||३४|| (२६०) मूलार्थ - निमित्त शास्त्रसे उसकी परीक्षा करे ॥ ३४ ॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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