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________________ २८६ धर्मविन्दु विवेचन-यथाशक्ति-अपनी शक्तिके अनुसार, सौविहित्यापादन-निर्वाहका उपाय करना । _माता-पिता आदिका समाधान करें। उनके निर्वाहका उपाय करनेसे माना-पिता आदिकी बादमे हैरानगति न हो। ऐसी कृतज्ञता करनेसे वे खुश होकर आज्ञा दे सकते हैं। ऐसा करने पर भी यदि वे आज्ञा न दें तो क्या करेंग्लानौषधादिज्ञातात त्याग इति ॥३१।। (२५७) मूलार्थ-ग्लान औपधिक दृष्टांतसे त्याग करे.॥३१॥ विवेचन-कोई एक कुलीन पुत्र अपने माता-पिता आदिके साथ उनकी सेवा करते हुए जंगलमें उनके साथ गया। वहां मातापिताको रोग हो जाने पर उसने सोचा कि औषधि बिना उनका रोग नहीं जा सकता और मेरे थोडे समयके लिये दूर रहनेसे मरे जैसे नहीं है अतः वह उनको छोडकर औषधि लेने चला जाता है। ऐसा त्याग करने पर भी वह सज्जन है। यहा फल प्रधान है। धीर पुरुष जिसमें फर देखे ऐसा ही कार्य करते हैं । अतः औषध लाकर वह माता पिताको ठीक करे ऐसा है। वह कुलीन पुत्र शुक्लपक्षवाला महापुरुष है । वह इस संसाररूप जंगलमें पडा है । विना समकितके माता पिता आदि सामान्य जनोका मोह आदि रोग हुआ है, अतः समकित औषध बिना इनका नाश न होगा और समकित औपधसे उनका रोग मिट सकता है अतः समकित औषधकी प्राप्ति के लिये वह उनका त्याग करे। संसार अटवीमेंसे उनका त्याग तत्वतः अत्याग है। यहां तत्त्व फल प्रधान है। उत्तरोत्तर हित करनेवाला ही तत्व फल है । वह धीर
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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