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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २४१ मूलार्थ-अपने वैभवके अनुसार विधिवत् क्षेत्रमें दान करे ॥६८॥ . विवेचन-विभवोचित-स्ववैभवके अनुसार, विधिना-आगे कही जानेवाली विधिसे, क्षेत्रेभ्य:-क्षेत्रोंमे, दानम्- योग्य वस्तु देना। प्रत्येक गृहस्थ अपने वैभवके अनुसार योग्य अधिकारी व पात्रको यथाशक्ति विधिवत् दान करे । अन्न, पान, वन, औषध, पात्र आदि उचित वस्तुका अर्पण करे । शास्त्रकार विधिके बारेमे कहते हैंसत्कारादिविधिनिःसंगता चेति ॥६९।। (२०२) मूलार्थ-सत्कार आदि सहित मोक्षसे भिन्न सब इच्छाओंका त्याग करके जो काम करे वह विधिवत् है ॥६९॥ विवेचन-सत्कार-ऊठना, आसनदेना, वन्दन करना आदि विनयपूर्वक देश, कालकी आराधना व विशुद्ध श्रद्धाको प्रकट करनेके लिये विनयसहित दान करना, निसंगता-ऐहिक व पारलौकिक सब प्रकारके फलोंकी अभिलाषा त्याग कर केवल सकल क्लेशके हरण करनेवाले और अकलकिक मोक्षकी ही इच्छा करना। . सत्कार सहित देशकालके अनुसार श्रद्धा प्रगट हो उस प्रकार किया हुआ दान विधिवत् दान है। साथ ही निष्कामवृत्तिसे दान देना चाहिये । इसलोक व परलोकके किसी भी सुखकी वाचा न रखकर केवल मुक्तिकी इच्छा करे। वीतरागधर्मसाधवः क्षेत्रमिति ॥७०॥ (२०३) . मलार्थ-वीतराग धर्मसे युक्त साधु योग्य क्षेत्र है |७०॥'
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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