SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १.२४० : धर्मविन्दु सर्व वांछित पदार्थोकी अविकल सिद्धिका मूल श्रुतचारित्ररूप धर्म ही धन है, ऐसा निरंतर सोचते रहना चाहिये। धर्मसे ही संतोष ,मान कर अधिक धनकी लालसा नहीं करना चाहिये। यह शुभ परिमाण सतत रखे। तथा-शासनोन्नतिकरणमिति ॥६७|| (२००) मूलार्थ-जैन शासनकी उन्नति करना चाहिये ॥६७॥ विषेचन-शासनस्य-सर्व हेय और उपादेय भावोंको प्रगट करनेमे सूर्य समान ऐसे श्रीजिन भगवान द्वारा निरूपित वचनरूप शासन, उन्नति-उच्च भावसे अच्छी रीतिसे न्याययुक्त व्यवहार करना । श्रीजिन भगवान द्वारा प्रणीत शास्त्र सिद्धांतरूप शामनकी उन्नति करनेमें तत्पर रहना । ठीक रीतिले न्यायका व्यवहार करनेसे, योग्यतानुसार लोंगोका विनय करना, दीन व अगायोका उद्धार, शुद्ध थतियोंकी पूजा व सकार, शुद्ध ब्रह्मचर्यका पालन, जिनमंदिर बनवाने, यात्रा, स्नात्र आदि विविध उत्सव करना, आदि उपायोमे जैन शासनकी उन्नतिमे निरतर रत रहना चाहिये । उसमें बहुत गुण रहे हुए हैं। कहा है कि "कर्तव्या चोन्नतिः सत्या, शक्ताविह नियोगतः । अवन्ध्यं कारण होपा, तीर्थकक्षामकर्मणः " ॥१२॥ -इस लोकमें अपने शासनकी उन्नति यथाशक्ति करना चाहिये क्योंकि यह तीर्थबर नाम कर्मका उपार्जन करनेका सही कारण है। विभयोचित विधिना क्षेत्रदानमिति ॥६८॥ (२०१)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy