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________________ १८८ : धर्मविन्द दुरुपयोग और ५ स्त्री आदिके साथ हुई गुप्त बात प्रगट करना ||२४|| विवेचन- १. मिथ्योपदेश - असत्य बात संबंधी उपदेशयह ऐसा है, ऐसा ही 'बोलो' इत्यादि असत्य कहनेको सिखाना । सत्य जानने पर भी असत्य कहना या कहलाना । २. रहस्याभ्याख्यान - 'रह' अर्थात् एकान्ते, वहा हुआ 'रहस्य' - रहस्य का कथन, जैसे किसी को एकांत में बातचीत करते हुए देखकर इस प्रकार कहना कि " ये लोग रांजा आदिके विरुद्ध इस प्रकार सलाह कर रहे है " या ऐसा विचार करते है आदि कहना । या किसी अन्यका ज्ञात हुआ रहस्य किसी दूसरे पर प्रकट करना । ३. कूटलेखक्रिया -असत्य अर्थ दर्शानेवाले अक्षरोको लिखना । ४. न्यासापहार-न्यास + उपहार - किसी अन्यके यहां रखे हुए रूपये आदिकी रखी हुई अमानतका समय पर न देना, गायब कर देना या स्वय उपयोग कर लेना । ५. स्वदारमन्त्रभेद - स्वारा - अपनी स्त्रीके गुम भाषणका भेद बाहर प्रकाशमें लाना। यहां स्वदारा में मित्र तथा हितैषी और विश्वास करनेवाले मित्र भी आ जाते हैं उनका रहस्य कहना | 1 मिश्रया उपदेश में 'दूसरेके पास झूठ न बुलाना' इस ब्रेनका भंग करता है । ' झंठ नहीं बोलूंगा' इस बनका खंडन नहीं होता । तो भी सहसात्कार और अनामो से अतिक्रम, व्यतिक्रम अथवा अतिचारसे अन्य व्यक्तिद्वारा झुठमें प्रवृत्ति कराना इस व्रतका अतिचार ܐ
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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