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________________ १२६ : धर्मविन्दु इसी तरह कष व छेद जब फलदायक नहीं होते तो वे मांगे हुए आभूषणोकी तरह हैं । इसका अर्थ यह है कि द्रव्य व पर्याय दोनोंसे नित्य व अनित्य माना हुआ जीव या अन्य पदार्थ हो तो कष व छेद दोनो अर्थात विधि-निषेध मार्ग और सहायकारी क्रिया उचित गिने जा सकते हैं। पर नित्य या अनित्यके एकांतवादमें तो वादी अपने वादकी शोभाके लिये ही कष व छेदकी कल्पना करता है। वे तो मांगे हुए आभूषणोंकी तरह निष्फल दीखते हैं और अपना कार्य करनेमे असमर्थ होते हैं। उपरोक्त वातसे सिद्ध होता है कि कष छेद व तापसे शुद्ध जो श्रुतधर्म है वह ग्रहणीय है। पर किसका कहा हुआ श्रुतधर्म प्रमाणभूत मानना ? कहते है-- नातत्त्ववेदिवादः सम्यग्वाद इति ॥४४॥ (१०२) ' मूलार्थ-जो तत्त्ववेत्ता नहीं उसका वाद (धर्म) सम्यग्बाद नहीं॥४४॥ विवेचन-अतत्ववेदिनः-साक्षात् वस्तु तत्वको न जाननेवाला, या अर्वाग् दृष्टि छमस्थ पुरुष, वाद-सत्य वस्तुका कथन-धर्म, सम्यग्वाद:-यथार्थे वस्तुके अर्थका बाद । । जो अतत्त्ववेदी छमस्थ पुरुष है उसका वाद सम्यग्वाद नहीं । साक्षात् वस्तुको नहीं देखनेवाले शास्त्रकार द्वारा रचित शास्त्र, जन्मसे अंधे चित्रकार द्वारा चित्रित चित्रकी तरह यथार्थ वस्तुके शुद्धरूपसे भिन्न होगा। इसी प्रकार ऐसे अर्धज्ञानी द्वारा प्ररूपित शास्त्र अंतर्दृष्टि खुले हुए ज्ञानीद्वारा कथित यथार्थ वस्तुकी तरह सन्य नहीं हो
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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