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________________ ८६ : 'धर्मपन्दु ' तथा तन्त्रावतार' इति ॥९॥ (६७) मूलाथ-और शास्त्र में प्रवेश कराना चाहिये ।। विवेचन-तन्त्रे-आगममें । अवतीर:-प्रवेश । 'श्रेताको पहले शोलके प्रति बहुमान उत्पन्न करा कर उसके द्वारा प्रवेश कराना चाहिये। आगमके प्रति बहुमान पूज्यभाव उत्पन्न हो ऐसा उपदेश देना । श्रोताको कहे कि "परलोकविधी शास्त्रात्, प्रायो नान्यदपेक्षते । आसन्नभव्यो मतिमान् , श्रद्धाधनसमन्वितः" ॥५०॥ - . .--आसन्न भव्य तथा श्रद्धावान बुद्धिमान मनुष्य परलोकसंबंधी कार्य, प्राय. शास्त्र सिवाय अन्यकी अपेक्षा नहीं रखता । पारलौकिक वस्तुएँ इन्द्रियोसे नहीं जानी जा सकती, अतः ज्ञानीकी उपस्थितिमें शास्त्र ही प्रमाण है। कहा है कि " उपदेशं विना ह्यर्थकामौ प्रति पटुर्जनः। • धर्मस्तु न विना शास्त्रादिति तत्रादरो हितः" ॥५१॥ - -अर्थ व काम दोनो पुरुषार्थः विना उपदेशके भी साधे जा सकते हैं, पर धर्म साधन तो शास्त्र बिना नहीं हो सकता। अत' शास्त्रका आदर करना हितकर हैं। "अर्थादावविधानेऽपि, तदभावः परं नृणाम् । "धर्मेऽविधानतोऽनर्थक क्रियोदाहरणात् परर" ॥५२॥ -- अर्थ व कामका उपार्जन न करनेसे मनुष्योको केवल अर्थ या कामका ही अभाव होगा पर धर्मका उपार्जन न करनेसे तो अर्थ
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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