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सब दोषरहित जिनेश तेरो, विरद तो दूरहि रहै । तुव कथा ही इहि जगतके सव, पापपुंजनको दहै । सूरज रहत है दूर ही पै, तासुकी किरनावली । सरवरनमें परि करत है, प्रमुदित सकल कुमुदावली॥९॥
अन्वयार्थी-(सहस्रकिरणः) सूर्य तो ( दूरे) दूर ही रहो, (प्रभा एव ) उसकी प्रभा ही (पद्माकरेषु ) तालाबोंमें जैसे (जलजानि)कमलोंको (विकाशभाञ्जि)प्रकाशमान् (कुरुते) कर देती है, उसी प्रकार हे जिनेन्द्र, (अस्तसमस्तदोष) अस्त हो गये है, समस्त दोष जिसके अर्थात् दोषरहित ऐसा (तव) तुम्हारा (स्तवनं दूरे आस्तां) स्तोत्र तो दूर ही रहै, (त्वत्संकथा अपि) तुम्हारी इस भव तथा परभवसम्बन्धी उत्तम कथा ही (जगतां) जगतके जीवोंके (दुरितानि ) पापोंको (हन्ति ) नाश करती है। __ भावार्थ:-सूर्यके उदयसे पहले जो उसकी प्रभा फैलती है, उससे ही जब कमल फूल उठते है, तब सूर्यके उदयसे कमल फूलेंगे, इसमें तो कहना ही क्या है ? इसी प्रकार आपकी कथा सुननेसे ही जब पाप नष्ट हो जाते है, तब आपके स्तोत्रसे तो होवेगे ही। इसमें कुछ सन्देह नही है । सारांश यह कि, आपका यह स्तोत्र पापोंका नाश करनेवाला होगा ॥९॥ नात्यद्भुतं भुवनभूषणभूत नाथ
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः।
१ तालावोंके वीचमे पड़के । २ 'अत्यद्भुतं" भी पाठ है, जो "भवं. न्तम्" का विशेषण होता है।