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हरि है सुमन सो सज्जननके, प्रभु-प्रभूत-प्रभावसों। जलविन्दु जैसे जलजदल परि, दिपत मुकताभावसों ॥८॥ . अन्वयार्थी-(नाथ) हे नाथ (इति मत्वा) इस प्रकार पापका नाश करनेवाला मनाकर (तनुधिया अपि मया) थोड़ी सी वुद्धिवाला हूं, तो भी मेरे द्वारा (इदम् ) यह (तव) तुम्हारा (संस्तवनं) स्तोत्र ( आरभ्यते) आरंभ किया जाता है । सो (तव ) तुम्हारे (प्रभावात् ) प्रभावसे (सतां) सेजन पुरुषोंके (चेतः ) चित्तको ( हरिष्यति ) हरण करेगा । जैसे कि (नलिनीदलेषु) कमलिनीके पत्तोंपर (उदविन्दुः) पानीका बिन्दु (ननु) निश्चयसे (मुक्ताफलद्युतिम् ) मुक्ताफलकी शोभाको ( उपैति ) प्राप्त होता है।
भावार्थ:-जैसे कमलिनीके पत्तोंपर साधारण जलके बिन्दु भी उन पत्तोंके प्रभावसे मोती सरीखे जान पड़ते है, उसी प्रकार यह स्तोत्र यद्यपि अच्छा नहीं है, परन्तु आपके प्रभावसे सज्जनोंके चित्तको अवश्य हरेगा । अर्थात् उत्कृष्ट काव्योंकी श्रेणीमें गिना जावेगा ।। ८॥ आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाजि ॥९॥ १ आपके प्रभावसे । २ दुर्जनोंको तो अच्छेसे अच्छा भी काव्य बुरा लगता है, इसलिये यहा सजन विशेषण दिया है।