________________
-----
-
---
-
-
-
-
"पाचाराऽनवचत्वं शुधिरुपस्कार शरीरशुहिम करोति शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसुयोग्यान । रत्नकांडनावकाचारमे स्वामित्रमन्तभद्राचार्य लिखते हैं कि:"सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।। देवादेवं विदुर्भस्मगूढाकारान्तरोजसम् ॥ २८ ॥ । अर्थात्-जो चांडाल का मी पुत्र सम्यग्दर्शन महित है, उसको श्रीगणधरादिक राखसे ढके हुए भगारेके प्रकाशके समान देव) कहते हैं। इससे चांडालका जैनी बन सकना मलभिांति प्रकट है। बल्कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति तो चौधे गुणस्थान में ही हो जाती है, चांडाल इससे भी ऊपर पांचवे गुणस्थान तक जा सकता है और श्रावकके व्रत धारण कर सकता है जैसा कि ऊपर उल्लेखकी हुइ ! कथाओंसे प्रकट हैं।
धर्मसंप्रत्रावकाचार-नवर्षे प्राधिकारमै निम्नलिखित दो श्लोकों द्वारा यह प्रकट किया है कि, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, महावत (मुनिपद) धारण कर सकते है और शूद्रोंके प्रमत्त आदि गुणस्थानोके न होने के कारण वे अणुब्रत धारण कर सकते हैं अर्थात अपांचवे गुणस्थान तक जा सकते हैं।
त्रिवर्णषु जायन्ते में चोचीत्रपाकता। देशावयवशुद्वानां तंषामेव महाव्रतम् ॥१५॥ . नीचर्गोत्रोदयाच्छुद्रा भवन्ति प्राणिनो भवे।।
प्रमत्तादिगुणाभावातषांस्यात्तदणुव्रतम् २५॥ धर्मरमिकत्रैवर्णिकाचार में श्रीलोमसेनजी साफ़ लिखते हैं कि:
PAR