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"ब्राह्मणादिचतुर्वर्य प्रायः शीलवतान्धितः। सत्यशोचढाचारोहिसायव्रतादूरगः ॥ १४१॥"
और इसी ९ वे अधिकार के श्लोक नं. २२५ में ब्राह्मणों के पूजन करना, पूजन कराना, पढ़ना, पढ़ाना, दान देना और दान लेना, ऐसे छह कर्म वर्णन करक उसके अगले श्लोकमे “यजनाध्यबने दावं परेषां श्रीणि ते पुन '' इस बचनले क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके पूजन करना पढ़ना, और दान देना, ऐले तीन वर्णन किये हैं।
इन दोनों शास्त्रों के प्रमाणोंसे महीमाति प्रकट है कि, ब्राह्मण क्षत्रिय, श्य और शूद्र, चागं वर्गों के मनुष्य जैनधर्मको धारण करके जैनी होसकते हैं। तब ही तो वे श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेके अ-, धिकारी वर्णन किये गये है।
सागरधर्मामृत मे प आशाधरजीने लिखा है कि:"शुद्रौप्यपुस्कराचारवपुःशुध्याऽस्तु तादृशः। जात्याहीनोऽपि कालादिलब्धो यात्मास्ति धर्मभाना
(भ२ श्लो• २२), अर्थात्-मासन और वर्तन वगैरह जिसके शुद्ध हो, मांस और मदिरा मादिके त्यागस जिसका आचरण पवित्र हो और नित्य स्नान भादिके करनेसे जिसका शरीर शुद्ध मताहा, ऐसा शूद्र मी ब्राह्मणाविक वर्णाकी सदृश श्रावक धर्मका पालन करनेके योग्य है। क्योंकि जातिसे हीन आत्मा भी कालादिक लब्धिको पाकर भावधर्मका अधिकारी होता है। ऐसा ही श्रीसोमदेव प्राचार्यन नातिवाक्यामृत' के नीचे लिखे वाक्यमें उपर्युक्त तीनो गाड़ियोंके होने । से दोको धर्मसाधनके योग्य बतलाया है।
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