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“विपक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जैनधर्मपराशक्तास्ते सर्वे बान्धबोपमा ॥
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अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र य चारों वर्ण अपनी अपनी क्रियाओंके भेदकी मपेक्षा वर्णन किये गये है, परन्तु ये चारों ही वर्ण-जैनधर्मको धारण करनेक योग्य हैं । इस सम्बंधसे जैनधर्मको पालन करते हुए य सब भापसमें माइके समान है।
इन सब प्रमाणों से सिद्धान्तकी अपेक्षा, प्रवृत्तिकी अपक्षा, और शास्त्राधारकी अपेक्षा सब प्रकार से यह बात कि प्रत्येक मनुष्य जैनधर्मका धारण कर सकता है, कितनी स्पष्ट और साफ तौरपर सिद्ध है, इसका अनुमान हमारे पाठक स्वयं कर सकते हैं और मालून कर सकते हैं कि वर्तमान जैनियोंकी यह कितनी मारी गलती और बेसमझी है जो केवल अपने आपको ही जैनधर्मका मौरूसी हक्कदार समझ बैठे हैं। 1
अफ़सोस ! जिनके पूज्य पुरुष तीर्थकरों और ऋषिमुनियाँका तो इस धर्मके विषय में यह ख्याल और यह कोशिश कि कोई | जीव भी इस धर्मसे वञ्चित न रहै-यथासाध्य प्रत्येक जीवको इस धर्मने लगाकर उसका हित साधन करना चाहिये, उन्हीं जैनियों की आज यह हालन कि, वे कंगूल और कृपण की तरह जैनधर्म को छिपाते फिरते हैं । न आप इस धर्मरत्न से कुछ लाभ उठाते हैं मौर न दूसरोंको ही लाभ उठाने देते हैं। इससे मालूम होता है कि, आजकल के जैनी बहुत ही तंगविल संकीणहृदय) हैं और इसी तंगादेकीने उनपर संगदिली ( पाषाणहृदयता ) की घटा छारक्खी है। खुदगर्जी (स्वार्थपरता ) का उनके चारों तरफ राज्य है । यही
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