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कारण है कि वे दूसराका उपकार करना नहीं चाहते हैं और न किसीको जैनधर्म का भद्धानी बनाने की कोई चेष्टा करते हैं । उन की तरफ से कोई डूबो या तिरो, उनको इससे कुछ प्रयाजन नहीं । अपने भाइयों की इस अवस्थाको देखकर मुझको बहुत दुःख होता है।
प्यारे जैमियो, आप उन वीर पुरुषोंकी सन्तान हो, जिन्होंन स्वार्थ बुद्धिको कमी अपने पालतक फटकने नहीं दिया, पौरुषहीनता और भीरताका कभी स्वप्नमे भी जिनको दर्शन नही हुआ, जिनके विचार बंडही विशुद्ध, गंभीर और जिनके हृदय विस्तीर्ण थे और जो संसार भरक सच्च शुभचिन्तक औरसब जीवका हितसाधन करने में ही अपन को कृतार्थ समझनेवाले थ । श्राप उन्ही की वंश परम्परा में उत्पन्न है जिनका सारा मनोबल, बचनबल, बुद्धिबल और कायबल निरन्तर परोपकार मे ही लगा रहता था धार्मिक जोश से जिनका मुखमडळ (चेहरा ) निरतर दमकताथा जो अपनी आत्माके समानदूसरे जीवोंकी रक्षा करते थे औौरइस सलारको असारसमझकर निरन्तर अपना और दूसरे जीवोंका कल्याण करनेमें ही लगे रहते थे, और ऐसे ही पूज्य पुरुषोका आप अपने आपको अनुयायी और उपासक भी बतलाते हैं जो शान विज्ञान के पूर्ण स्वामी थे, जिनकी । समामे पशु पक्षी तक भी उपदेश सुनने के लिये अ ते थे, जिन्होने जैनधर्म धारण कराकर करोडों जीवोंका उद्धार किया था और भिन्न धर्मावलम्बियों पर जैनियोंके हिसाधर्मको छाप जमाईथी । इसलिये आपही तनिक विचार कीजिये कि, क्या अपनी ऐसी हालत बनाना और दूसरोंका उपकार करने से इस प्रकार हाथ खींच लेना आपके दिये वचित और योग्य है ? कदापि नहीं ।