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भी नित्यपूजनमे समाविष्ट हैं ।" जैसा कि निम्नलिखित प्रमाणोसे प्रगट है -
"बलिनपननाट्यादि नित्यं नैमित्तिकं च यत् । भक्ताः कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथाखं विकल्पयेत् ॥"
-मागारधमा० अ० २, श्लो. २० । "बलिनपनमित्यन्यत्रिसंध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ॥"
-~आदिपुराण ० अ० ३८, श्लो० ३ । उपरके इस कथनसे यह भी स्पष्टरूपसे प्रमाणित होता है कि अपने पूज्यके प्रति आदर सत्काररूप प्रवर्त्तनेका नाम ही पूजन है। पूजा, भक्ति, उपासना और सेवा इत्यादि शब्द भी प्राय एकार्थवाची है और उसी एक आशय और भावके द्योतक है। इसप्रकार पूजनका म्वरूप समझकर किसी भी गृहस्थको नित्यपूजन करनेसे नहीं चूकना चाहिये । सबको आनद और भक्तिके साथ नित्यपूजन अवश्य करना चाहिये।
शूद्राऽधिकार । यहापर, जिनके हृदयमे यह आशका हो कि, शूद्र भी पूजन कर सकते है या नहीं ? उनको समझना चाहिये कि जब तिर्यंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये है तब शूद्र, जो कि मनुष्य है और नियंचोसे ऊंचा दर्जा रखते है, कैसे पूजनके अधिकारी नहीं है? क्या अद्र जैनी नहीं हो सकते ? या श्रावकके व्रत धारण नहीं कर सकते ? जब शूद्रोको यह सब कुछ अधिकार प्राप्त है और वे श्रावकके बारह व्रतोको धारणकर ऊचे दर्जेके श्रावक बन सकते है और हमेशासे शूद्ध लोग जैनी ही नहीं, किन्तु ऊचे दर्जेके श्रावक (शुल्लकतक) होते आये है, तब उनके लिये पूजनका निषेध कैसे हो सकता है। श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजके वचनानुमार, जब विना पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं सकता, और