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२१ शूद्र लोग भी श्रावक जरूर होते है, तब उनको पूजनका अधिकार स्वत. सिद्ध है। __ भगवानके समवसरणमे, जहां निर्यच भी जाकर पूजन करते है, वहा जिसप्रकार अन्य मनुष्य जाते है, उसी प्रकार शूद्रलोग भी जाते है और अपनी शक्ति के अनुसार भगवानका पूजन करते है । श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराणमे, महावीरस्वामीके समवसरणका वर्णन करते हुए, लिखा हे-समवसरणमे जब श्रीमहावीरस्वामीने मुनिधर्म और श्रावकधर्मका उपदेश दिया, तो उसको सुनकर बहुतसे ब्राह्मण, क्षत्रिय
और वैश्य लोग मुनि होगये और चारो वोंके स्त्रीपुरुषोने अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्रोने, श्रावकके बारह व्रत धारण किये । इतना ही नहीं, किन्तु उनकी पवित्रवाणीका यहातक प्रभाव पड़ा कि कुछ तिर्यंचोने भी श्रावकके व्रत धारण किये । इससे, पूजा-वन्दना और धर्मश्रवणके लिये शूद्रोका समवसरणमे जाना प्रगट है । शूद्रोके पूजन सम्बधमे बहुतसी कथाएं प्रसिद्ध है । पुण्यात्रवकथाकोशमं लिखा है कि एक माली (शद्र) की दो कन्याए, जिनका नाम कुसुमावती और पुष्पवती था, प्रतिदिन एक एक पुष्प जिनमदिरकी देहलीपर चढ़ाया करती थी। एक दिन वनसे पुप्प लाते समय उनको सर्पने काट खाया और वे दोनो कन्याएँ मरकर इस पूजनके फलसे सौधर्मस्वर्गमे देवी हुई।" इसी शास्त्रमे एक-पशुचरानेवाले नीच कुली ग्वालेकी भी कथा लिखी है, जिसने सहस्रकूट चैत्यालयमे जाकर, चुपकेसे नहीं किन्तु राजा, सेठ और सुगुप्ति नामा मुनिराजकी उपस्थिति (मौजूदगी) में एक बृहत् कमल श्रीजिनदेवके चरणोम चढाया और इस पूजनके प्रभावसे अगले ही जन्ममे महाप्रतापी राजा करकुंडु हुआ। यह कथा श्रीआराधनासारकथाकोशमे भी लिखी है। इस प्रथमे ग्वालेकी पूजन-विधिका वर्णन इसप्रकार किया है -
"तदा गोपालकः सोऽपि स्थित्वा श्रीमजिनाग्रतः । 'भोः सर्वोत्कृष्ट ! मे पद्मं ग्रहाणेदमिति' स्फुटम् ॥१५॥