________________ मत्वा विधेहि वृषमाशु यतो विशालो “यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते" // 47 // ___ "हे मुग्धे, बन्धुओंको बन्धनों के समान, विषयोंको विषके समान और अर्थोको ( धनको ) अनर्थोंके समान समझकर शीघ्र ही धर्मको धारण कर, जिससे कि बड़े भाग्यशाली बुद्धिमान् भी तेरी स्तुति करे / अर्थात् तू बडे भारी उत्कृष्टपदको प्राप्त होवे / " श्रुत्वेति भर्तृवचनं सहसा प्रबुद्धा प्राप्य व्रतं च सुरसन्न समाससाद / नेमिस्ततो ानुजगाम यतोऽधुनापि / __ "तं मानतुङ्गमिव सा समुपैति लक्ष्मीः " // 48 // अपने पतिके ऐसे वचन सुनकर राजीमती एकाएक प्रबुद्ध हो गई-इस लिये उसने तत्काल ही जिनदीक्षा ले ली और तप करके वह स्वर्गको प्राप्त हुई / भगवान् नेमिनाथ उसके पीछे मोक्षधामको पधारे / और अब आगे वह लक्ष्मी भी उन मानतुग अर्थात् पदमे ऊचे श्रीनेमिनाथको प्राप्त करेगी / अभिप्राय यह कि स्वर्गसे चयकर वह भी मुक्त हो जायगी।