________________ शोभित होती / रातको चन्द्रमाका तेज जिस प्रकार स्फुरायमान् होता है, वैसा तेज प्रकाशमान होने पर भी तारागणोका कहासे हो सकता है / तात्पर्य यह कि, आपके विना द्वारिकानगरी सूनी शोभाहीन हो रही है। कन्दपदारुणशराहतिभीतचित्ता त्वामेव देव शरणार्थमहं प्रपन्ना। यस्माद्विष प्रबलमप्यवदातकीर्ते ___ "दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्" // 38 // हे देव, कामदेवके बाणोंकी कठिन चोटोसे डरकर मै शरण लेनेके लिये आपके पास आई हू / क्यों कि हे निर्मल कीर्तिके धारण करनेवाले, जो लोग आपका आसरा ले लेते है, उन्हे प्रबल शत्रुको देखकर भी कुछ भय नहीं होता है। सत्य वचः शृणु विभो रमण करोमि त्वामेव सुन्दर भवानिव वा भवामि / भन्यो हनन्यमनसं जनमञ्जनाभ __ "नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रित ते" // 39 // हे प्रभो, हे सुन्दर, मै सच कहती हू, सुनिये, या तो मै आपको ही अपना पति बनाऊगी, अथवा आप ही सरीखी हो जाऊगी अर्थात् दीक्षा ले लूगी। क्योंकि हे श्याम, आपके चरणरूपी पर्वतका आश्रय लेने वाले तथा उनमे अनन्यचित्त होकर लवलीन होनेवाले जीवपर अन्य कोई आक्रमण नहीं कर सकता है / तात्पर्य यह है कि,